Book Title: Syadwad ka Lokmangal Drushti evam Kathan shaili Author(s): Shantakumari Dharmnath Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 4
________________ RELA. A APAN Sonside B हामि Answer UNawala nkinar PARAN चतुथं खण्ड / ८२ । RANDANA करMARY RAN RECEO अर्चमार्चन मुझे न तो महावीर के प्रति पक्षपात है और न कपिलादि मुनिगणों के प्रति द्वेष । लेकिन यह आकांक्षा है कि जो भी वचन युक्तियुक्त हो उसे ग्रहण करू। इस प्रकार स्याद्वाद ने व्यक्ति को उस असीम उच्च धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया, जहाँ वह अपने स्वविचारों की कसौटी करे। उपाध्याय श्री यशोविजयजी ने वैचारिक सहिष्णुता के लिए स्याद्वाद के अवलम्बन की आवश्यकता की ओर संकेत करते हुए कहा हैसच्चा अनेकांतवादी किसी दर्शन पर द्वेष नहीं करता है। वह संपूर्ण नयरूप दर्शनों को इस प्रकार की वात्सल्यदृष्टि से देखता है जिस प्रकार कोई पिता अपने पुत्रों को देखता है। क्योंकि अनेकांतवादी की न्यूनाधिक बुद्धि नहीं होती है। वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहा जाने का वही अधिकारी है जो स्याद्वाद का अवलंबन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समानता का भाव रखता है। माध्यस्थ्य भाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद है । मध्यस्थ भाव रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों के पढ़ जाने से भी कोई लाभ नहीं है।' स्याद्वाद-कथनशैली शब्दशास्त्र की दृष्टि से प्रत्येक शब्द के मुख्य रूप से विधि और निषेध ये दो वाच्य होते हैं । एकान्त रूप से न कोई विधि संभव है और न कोई निषेध ही। विधि और निषेध को लेकर जो सप्तभंगी बनती है, वह इस प्रकार है (१) स्यात् अस्ति। (२) स्यात् नास्ति । (३) स्यात् अस्ति-नास्ति । (४) स्यात् प्रवक्तव्यम् (५) स्यात् अस्ति अवक्तव्यम् ) स्यात् नास्ति वक्तव्यम् (७) स्यात् अस्ति नास्ति वक्तव्यम् इस सप्तभंगी में अस्ति, नास्ति और प्रवक्तव्य ये मूल तीन भंग हैं। इसमें तीन द्विसंयोगी और एक त्रिसंयोगी इस तरह चार भंग मिलने से सात भंग होते हैं। अस्ति-नास्ति, अस्ति-प्रवक्तव्य और नास्ति-प्रवक्तव्य से द्विसंयोगी भङ्ग हैं। ये तीनों रूप आगमों में विद्यमान हैं। जैसे कि भगवान् महावीर ने गणधर गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव । तस्यानेकान्तवादस्य क्व न्यूनाधिकशेमुषी । तेन स्याद्वादमालंब्य सर्वदर्शनतुल्यतां । मोक्षोद्देशविशेषेण यः पश्यति स शास्त्रवित् ।। माध्यस्थमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारु सिद्धयति । स एव धर्मवादः स्यादन्यद् वालिशवल्गनम् ।। माध्यस्थसहितं ह्य कपदज्ञानमपि प्रभा । शास्त्रकोटिवथैवान्या तथा चोक्तं महात्मना ।। -अध्यात्मवाद ६९-७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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