Book Title: Syadwad ka Lokmangal Drushti evam Kathan shaili
Author(s): Shantakumari Dharmnath
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 3
________________ स्यावाद की लोकमंगल दृष्टि एवं कथनशैली |८१ लिए 'भी' का प्रयोग आवश्यक है। 'भी' का प्रयोग सफल, शिष्ट और सर्वमान्य प्रणाली है और इसके दर्शन हमें अपने प्रतिदिन के जीवन-व्यवहार में होते हैं । अपेक्षाओं की सिद्धि 'ही' से नहीं 'भी' से सम्भव है । 'भी' का प्रयोग यह अभिव्यक्ति देता है कि स्वसत्य तो सत्य है ही, लेकिन दूसरा भी सत्य है । विश्ववन्द्य भगवान् महावीर ने स्यादवाद सिद्धान्त के द्वारा यही सूत्र दिया है कि एक पक्ष की सत्ता स्वीकार करते हुए दूसरे पक्ष को भी उसका सत्य कहने दो और उस सत्य . को स्वीकार करो। यह सिर्फ दार्शनिक चिन्तन नहीं है किन्तु सम्पूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाला है और इसके द्वारा हम गरीबों दुर्बलों और अल्पसंख्यकों को न्याय दे सकते हैं । प्राज जो संघर्ष, वर्गभेद, विग्रह आदि हैं उनका मूल कारण एक-दूसरे के दृष्टिकोण को न समझना है, वैयक्तिक हठ व आग्रह प्रादि हैं। अपूर्णता के द्वारा पूर्ण को जानने के समस्त प्रयास अांशिक सत्य के ज्ञान से आगे नहीं जा पाते हैं और आंशिक सत्य को ही जब पूर्ण सत्य मान लिया जाता है तब संघर्ष पैदा होना अवश्यम्भावी है। सत्य न केवल उतना है कि जितना हम जानते हैं अपितु वह तो अपनी पूर्ण व्यापकता लिए हए है। इसलिए मनीषी चिन्तकों को कहना पड़ा कि उसे तर्क, विचार, बुद्धि और वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता है। मानवबुद्धि सत्य को जानने में समर्थ अवश्य है। किन्तु पूर्णता प्राप्त किये बिना उसे पूर्णरूप में नहीं जान सकती है। ऐसी स्थिति में जब तक हम अपूर्ण हैं, हमारा ज्ञान अपूर्ण है, विचार अपूर्ण है, तब तक अपूर्ण ज्ञान से प्राप्त उपा को पूर्ण नहीं कहा जा सकता । उसे आंशिक सत्य कहा जायेगा और सत्य का आंशिक ज्ञान दूसरों के द्वारा प्राप्त ज्ञान का निषेध नहीं कर सकेगा। इसलिए इस प्रकार का दावा करना मिथ्या होगा कि मेरी दृष्टि ही सत्य है, मेरे पास ही सत्य है । आधुनिक विज्ञान ने भी शोध से यही सिद्ध किया है कि वस्तु अनेकात्मक है। प्रत्येक वैज्ञानिक सत्य का शोधक है । इसलिए यह दावा नहीं करता है कि सृष्टि के रहस्य और वस्तुतत्त्व का पूर्णज्ञान प्राप्त कर लिया है। वैज्ञानिक सापेक्षवाद का सिद्धान्त यही तो कहता है कि हम केवल सापेक्ष सत्यों को जान सकते हैं, निरपेक्ष सत्य को पूर्णदृष्टागम्य है । अतः दूसरों के ज्ञात सत्य को असत्य नहीं कहा जा सकता है और आपेक्षिक सत्य अपेक्षाभेद से सत्य हो सकते हैं। स्याद्वाद की भी यही दृष्टि है। ___ इस प्रकार व्यावहारिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक आधारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्व की संरचना विविध विरोधों का समन्वित रूप है और वे सब उसके धर्म हैं, स्वभाव हैं। उनके अतिरिक्त विश्व का अन्य कोई रूप नहीं है। ये विरोध प्रतिद्वन्द्वी नहीं है किन्तु परस्पर सापेक्ष हैं। उनका आधार एक है और वे आधार के प्रति एकनिष्ठ हैं । इस तथ्य को स्वीकार करने पर वैचारिक संघर्ष और विवाद के लिए अवकाश ही नहीं रह जाता है। पक्षपातो न मे वीरे, न द्वषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥२ १. (क) नैषा तर्केण मतिरापनेया।-कठोपनिषद् (ख) नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।-मुण्डकोपनिषद् (ग) सव्वे सरा नियत्तंते तक्का तत्थ न विज्जइ।-आचारांगसूत्र २. षड्दर्शनसमुच्चय-टीका। धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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