Book Title: Swetambar Mulsangh evam Mathursangh ek Vimarsh
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf

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Page 5
________________ ६३४ जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ ४. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-२, मणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, सं० ४५, हीराबाग, बम्बई ४, प्र०सं० १९५२ लेखक्रमांक १८०/ जैन शिलालेख संग्रह भाग २ लेखक्रमांक १७८० " (f वही, २५०/ इस लेख के अंत में मैं विद्वानों से अपेक्षा करूंगा कि श्वेताम्बर माथुर संघ के सम्बन्ध में यदि उन्हें कोई जानकारी हो तो मुझे अवगत करायें ताकि हम इस लेख को और अधिक प्रमाण पुरस्सर बना सकें। संदर्भ १. (अ) सं० प्रो० ढाकी, प्रो० सागरमल जैन, ऐस्पेक्ट्स आव जैनालाजी, खण्ड - २, (पं० बेचरदास स्मृति ग्रन्थ) हिन्दी विभाग, जैनसाहित्य में स्तूप प्रो० सागरमल, पृ० १३७-८। (ब) विविधतीर्थकल्प जिनप्रभसूरि, मथुरापुरी कल्पा २. अर्हत् वचन, वर्ष ४, अंक १, जनवरी ९२, पृ० १० । ३. (अ) विविधतीर्थकल्प जिनप्रभसूरि, मथुरापुरी कल्प (ब) प्रभावकचरित, प्रभाचन्द्र सिंघी जैन ग्रन्थमाला, पृ० सं० १३. कलकत्ता, प्र०सं० १९४०, पृ० ८८-१११। ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचायें: एक अध्ययन भारतीय संस्कृति श्रमण और ब्राह्मण संस्कृतियों का समन्वित रूप है। जहाँ श्रमण संस्कृति तप-त्याग एवं ध्यान साधना प्रधान रही है, वहाँ ब्राह्मण संस्कृति यज्ञ-याग मूलक एवं कर्मकाण्डात्मक रही है। हम श्रमण संस्कृति को आध्यात्मिक एवं निवृत्तिपरक अर्थात् संन्यासमूलक भी कह सकते हैं, जबकि ब्राह्मण संस्कृति को सामाजिक एवं प्रवृत्तिमूलक कहा जा सकता है। इन दोनों संस्कृतियों के मूल आधार तो मानव प्रकृति में निहित वासना और विवेक अथवा भोग और योग (संयम) के तत्व ही हैं जिनकी स्वतन्त्र चर्चा हमने अपने ग्रन्थ 'जैन, बौद्ध एवं गीता का साधना मार्ग' की भूमिका में की है । यहाँ पर इन दोनों संस्कृतियों के विकास के मूल उपादानों एवं उनके क्रम तथा वैशिष्ट्य की चर्चा में न जाकर उनके ऐतिहासिक अस्तित्व को ही अपनी विवेचना का मूल आधार बनायेंगे। भारतीय संस्कृति के इतिहास को जानने के लिये प्राचीनतम साहित्यिक स्त्रोत के रूप में वेद और प्राचीनतम पुरातात्विक स्त्रोत के रूप में मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा के अवशेष ही हमारे आधार हैं। संयोग से इन दोनों ही आधारों या साक्ष्यों से भारतीय श्रमण धारा के अति प्राचीन काल में भी उपस्थित होने के संकेत मिलते हैं। ऋग्वेद भारतीय साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है। यद्यपि इसकी अति प्राचीनता के अनेक दावे किये जाते हैं और मीमांसक दर्शनधारा के विद्वान तो इसे अनादि और अपौरूषेय भी मानते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि ईस्वी पूर्व १५०० वर्ष पहले यह अपने वर्तमान स्वरूप में अस्तित्व में आ चुका था। इस प्राचीनतम ग्रन्थ में हमें श्रमण संस्कृति के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध होते हैं। वैदिक साहित्य में भारतीय संस्कृति की इन श्रमण और ब्राह्मण धाराओं का निर्देश क्रमश: आर्हत और बार्हत धाराओं के रूप में मिलता Jain Education International ५. ६. ७. वही, ८. " २०७/ वही, भाग ३, भूमिका, पृ० २६ व ३२। जैन शिलालेख सं, भाग २, लेखक्रमांक ९० व ९४ । ९. १०. जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, भूमिका, पृ० २३। ११. वही भाग २, लेखक्रमांक ७९१ । । › १२. वही, लेखक्रमांक १२२ एवं १२३ (मने का ताम्रपत्र)। है। साथ ही मोहनजोदड़ो के उत्खनन् से वृषभ युक्त ध्यान मुद्रा में योगियों की सीलें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण हैं कि ऋग्वेद के रचनाकाल के पूर्व भी भारत में श्रमण धारा का न केवल अस्तित्व था, अपितु वही एक मात्र प्रमुख धारा थी । क्योंकि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन में कहीं भी यज्ञवेदी उपलब्ध नहीं हुई है, इससे यहाँ सिद्ध होता है कि भारत में तप एवं ध्यान प्रधान आर्हत परम्परा का अस्तित्व अति प्राचीन काल से ही रहा है। यदि हम जैन धर्म के प्राचीन नामों के सन्दर्भ में विचार करें तो यह सुस्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह आर्हत धर्म के नाम से ही प्रसिद्ध रहा है। वास्तविकता तो यह है कि जैन धर्म का पूर्व रूप आर्हत धर्म था। ज्ञातव्य है कि जैन शब्द महावीर के निर्वाण के लगभग १००० वर्ष पश्चात् ही कभी अस्तित्व में आया है। सातवीं शती से पूर्व हमें कहीं भी जैन शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है, यद्यपि इसकी अपेक्षा 'जिन' व 'जिन धम्म' के उल्लेख प्राचीन हैं। किन्तु अर्हत्, श्रमण, जिन आदि शब्द बौद्धों एवं अन्य श्रमण धाराओं में भी सामान्यरूप से प्रचलित रहे हैं। अत: जैन परम्परा की उनसे पृथकता की दृष्टि से पार्श्व के काल में यह धर्म निर्ग्रन्थधर्म के नाम से जाना जाता था। जैन आगमों से यह ज्ञात होता है कि ई.पू. पाचवीं शती में भ्रमण धारा मुख्य रूप से ५ भागों में विभक्त थी- १. निर्ग्रन्थ, २. शाक्य, ३. तापस ४. गैरूक और ५. आजीवक २ । वस्तुतः जब श्रमण धारा विभिन्न वर्गों में विभाजित होने लगी तो जैन धारा के लिए पहले 'निर्ग्रन्थ' और बाद में 'ज्ञातपुत्रीय श्रमण' शब्द का प्रयोग होने लगा। न केवल पाली त्रिपिटक एवं जैन आगमों में अपितु अशोक (ई.पू.३ शती) के शिलालेखों में भी जैनधर्म का उल्लेख निर्ग्रन्थ धर्म के रूप में ही मिलता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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