Book Title: Swadhyaya Kala 02
Author(s): Muktichandravijay, Munichandravijay
Publisher: Vanki Tirth Mundra

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Page 64
________________ रोती-रोती गंगा बोली : हो गई हूँ आज मैं मैली, जल है दूषित सर्वथा मम, शुद्धि नष्ट हो गई मेरी; मत रो ओ गंगा मैया ! शुद्धि अभी सुरक्षित है, कलापूर्णसूरि नाम की गंगा, इस धरती पर बहती है। (रो रो ओ गंगामैया ! शुद्धि कभी सुरक्षित थी, कलापूर्णसूरि नाम की गंगा, इस धरती पर बहती थी.) - रचयिता : श्री मुक्ति/मुनि मां ! तूने अति वेदना प्रसव की जो भोग ली, ना गिनूं, सूखाया अपना शरीर कपड़े धो धो उसे ना गिनूं ढोया जो नव मास गर्भ उसका भी एक कर्जा बना, पाऊं उन्नति तो भी ना भर सकू, हे मां ! तुझे वंदना. - हिन्दी अनुवाद : मुक्ति / मुनि । 'मां' : पुत्र की दृष्टि में पू. मां महाराज के कालधर्म के बाद पू.पं. कल्पतरुविजयजी का संवेदनात्मक एक पत्र... मातृवंदना आस्तां तावदियं प्रसूति-समये दुर्वार-शूलव्यथानैरुच्ये तनु-शोषणं मलमयी शय्या च सांवत्सरी । एकस्यापि न गर्भभार-भरण-क्लेशस्य यस्याः क्षमो यातुं निष्कृतिमुन्नतोऽपि तनयः तस्यै जनन्यै नमः ।। - आ. शंकर (शार्दूलविक्रीडितम् ) મા, તે દુ:સહ વેદના પ્રસવની જે ભોગવી ના ગણું, કાયા દીધી નીચોવી ના કહું ભલે તે ધોઈ બાળોતિયાં; આ જે એક જ ભાર માસ નવ તેં વેક્યો હું તેનું ઋણ, પામ્યો ઉન્નતિ તોય ના ભરી શકું તે મા ! તને હું નમું. - शुभराती अनुवाह: म वे सादर अनुवंदना । - मां महाराज गये, भीतर के मनः-प्रदेश को भीगा-भीगा करता एक वात्सल्य-निर्झर सदा के लिए लुप्त हो गया । भले दूर हो, साथ में न हो तो भी मां का अस्तित्व मन को एक बलप्रद व आनंद-प्रद बनता अस्तित्व है। अंदाजन ३-३० से ४-३० तक शाम को हम तीनों भाई भरूच होस्पिटल में मां महाराज के पास ही थे। अंतिम सांस तक उन्हें देखते रहे । आत्मा का निर्गमन तो नहीं दिखता, लेकिन श्वास-प्राण की विदाई किस ૧૨૪ ૧૨૫

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