Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 04
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका द्वि. श्रु. अ. ५ आचारथुननिरूपणम्
टोका--'अणाइयं' अनादिकम्-नादिः-प्रथमोत्पत्तियते यस्य तदनादिकम्-आदिरहितम् । 'पुणो' पुनः, तथा-'अणवदग्गेई' अनवदग्रम्-न विद्यते अव दग्रं पर्यन्तं यस्य सोऽनवदग्रं तदेव - भूतम् , 'परिन्नाय', परिज्ञाय-लोकोऽयं चतुर्दश रज्ज्वात्मको धर्माधर्मादिरूपो वा अनादिरन्तरहितश्चेति प्रमाणतः 'सासए' शाश्व, तमेव-शश्वदर्भवतीति शाश्वतम्-नित्यं सांख्यमताभिमायेणानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावम् एकान्तनित्यमेवाकाशादिवस्तु 'असासए' अशाश्वतम्-एकान्तमनित्यम्-विनश्वरम् 'दिहि' दृष्टिम्-अभिप्रायम्-इदन्तद् एकान्त नित्यम् इदन्तद् एकान्तमनित्यमि ते. दृष्टिमाग्रहं न धारयेत् । एतादृशं कदाग्रहं न कुर्यात्कथमपि । किन्तु सर्वमेव वस्तु. द्रव्यरूपेण नित्यं पर्यायरूपेण अनित्यमित्येव जानीयादिति भावः। २॥
टीकार्य--जिसकी आदि प्रथप उत्पत्ति-न हो, वह अनादि कहः लाता है। जिसका अन्त न हो उसे अनन्त कहते, हैं । यह चौदह रज्जु, परिमाण वाला अथवा धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिशय मय लोक आदि... और अन्त से रहित है, ऐसा, प्रमाण से जानकर ऐसा अभिप्राय धारण न करे कि. यह नित्य ही अथवा अनित्य ही है। इस प्रकार का, कदाग्रह धारण करना योग्य नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु द्रव्य रूप से. नित्य और पर्याधरूप से अनित्य है। सांख मत के अनुसार लोक, कभी उत्पन्न नहीं होता और सदैव स्थिर एक स्वभाव में रहता है। बौद्धमत में यह एकान्त विनश्वर है अर्थात् क्षण क्षण में सर्वथा नष्ट होता रहता है, यह दोनों एकान्त अभिप्राय है, अतएव मिथ्या हैं ॥२॥
ટીકાર્ય–જેની આદિ અર્થાત ઉત્પત્તિ ન હોય, તે અનાદિ કહેવાય છે. અને જેને અન્ત અર્થાત્ નાશ ન હોય, તેને અનંત કહે છે. આ ચૌદ રાજુના પ્રમાણવાળા અથવા, ધર્માસ્તિકાય, અધર્માસ્તિકાય વાળે લેક–સંસાર આદિ, અને અંત વિનાના છે, એ રીતે પ્રમાણથી જાણીને એ અભિપ્રાય ધારણ ન કરે.
म. नित्य, छे. सध्या अनित्य , छे प्रभारी ने हाई-पाटी, सो धारप, ४२३॥ योग्य नथी. भ3-४२४, १२तु, द्र०य५९ थी नित्य,. प्रयायपाथी अनित्य छे. साय मत प्रमा, यरेय अपन थत नथी, છે. અને હંમેશાં સ્થિર એક સ્વભાવમાં રહે છે બૌદ્ધ મત પ્રમાણે આ એકાન્ત,
વિનશ્વર-નાશ પામવાવાળો છે. અર્થાત્ ક્ષણે ક્ષણે સર્વથા નાશ પામતે રહે , छ. म मन्ने मत अनि.पाय, छे, तेथी ४ ते (भथ्या छ ।सू०२॥,