Book Title: Sramana 2011 01
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 157
________________ जिज्ञासा और समाधान : 139 है, मिथ्यात्व या असदाचार है। अहिंसा और अपरिग्रह से व्यवहार में सुख-शान्ति संभव है और परमार्थ से मुक्ति भी है। ये दोनों विषम परिस्थितियों और विरोधों में दीपक का काम करते हैं। जगत् में व्याप्त कलह, तनाव आदि से निवृत्ति का उपाय एकमात्र अहिंसा और अपरिग्रह है। अन्य जितने भी नियम और उपनियम हैं वे सब इसी धुरी के आरे हैं। कर्मवाद और ईश्वर जैनधर्म का दूसरा सिद्धान्त 'कर्मवाद' का है जो पूर्णतः मनोवैज्ञानिक है। इसके प्रभाव से शरीर-संरचना, ज्ञान, चारित्र, आयु, संपन्नता, सुख, दुःख, शक्ति आदि का निर्धारण होता है। मूलतः कर्म के आठ प्रकार हैं। ये अवान्तर भेदों से १४८ हैं। ये कार्मण-पुद्गल आत्मा के राग-द्वेषादि परिणामों का निमित्त पाकर मूर्तिक होकर भी अमूर्त आत्मा से सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। इस सम्बन्ध को कराने में लेश्यायें गोंद की तरह कार्य करती हैं। जैनधर्म में किसी अनादि, नित्य, सृष्टिकर्ता, संहारकर्ता और पालनकर्ता ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानी गई है। तीर्थंकरों को ही ईश्वर मानकर उनकी पूजा की जाती है। यद्यपि तीर्थकर कुछ नहीं करते परन्तु उनके गुणों के चिन्तन से हमारे विचारों में परिवर्तन एवं शुद्धता आती है और हमें अच्छा फल मिलता है। यहाँ प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति को स्वीकार किया गया है। कर्म का आवरण उस शक्ति को प्रकट होने में आवरण का कार्य करता है। रत्नत्रय के प्रभाव से इस कर्म-आवरण के हटते ही आत्मा पूर्ण चैतन्यता, आनन्दावस्था, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता को प्राप्त कर लेता है। मूल स्रोत परम्परा से जैनधर्म अनादि माना जाता है। वर्तमान काल में आज से असंख्यात वर्ष पूर्व प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभदेव) हुए थे जिन्होंने सर्वप्रथम असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या (गायनादि) इन छह विद्याओं की शिक्षा दी थी तथा समाज को कार्यों के आधार पर तीन वर्गों में विभक्त किया था- क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। बाद में ऋषभदेव के पुत्र इस युग के प्रथम चक्रवर्ती भरत ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। ऋषभदेव के भरत और बाहुबली आदि १०१ पुत्र तथा ब्राह्मी, सुन्दरी येदो पुत्रियाँ थीं। ब्राह्मी को लिपि विद्याऔर सुन्दरी को अंक-विद्या सिखाई। ऋषभदेव का उल्लेख हमें वेदों में भी मिलता है। इनके बाद जैनधर्म में २३ तीर्थकर और हुए जिनमें २०वें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ के समय मर्यादापुरुषोत्तम राम हुए। नेमिनाथ के ८४६५० वर्ष बाद २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ और उसके २४८ वर्ष बाद ईसा पूर्व ५९९ में भगवान् महावीर का जन्म हुआ। यह अंतिम २४वें तीर्थंकर का शासनकाल चल रहा है। भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद २५३७ वर्ष बीत चुके हैं। आदिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर इन चारों तीर्थंकरों की

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