Book Title: Sramana 2011 01
Author(s): Sundarshanlal Jain, Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 155
________________ || जिज्ञासा और समाधान जिज्ञासा- क्या जैन धर्म केवल निवृत्ति प्रधान है? इसका मूल स्रोत क्या है? क्या इसमें समाजोपयोगी साहित्य एवं समन्वय की प्रवृत्ति नहीं है? - श्री ओमप्रकाश सिंह समाधान- भारतीय अनुसन्धान इतिहास परिषद्, नई दिल्ली के आर्थिक अनुदान से पार्श्वनाथ विद्यापीठ में एक पन्द्रह दिवसीय (१२-२७ मार्च) कार्यशाला आयोजित की गई थी। जिसका विषय था जैन विद्या के स्रोत एवम् उसके मौलिक सिद्धान्त'। विषय बहुत व्यापक था परन्तु इसका लक्ष्य था जैन विद्या के सम्बन्ध में प्रचलित भ्रान्तियों का निवारण। इस कार्यशाला में इन प्रश्नों का समाधान किया गया, जो इस प्रकार हैसमन्वयात्मक दृष्टिजैसा कि आप सभी जानते हैं कि जैन धर्म एक श्रमण परम्परा है और यह सामान्यतः निवृत्ति प्रधान मानी जाती है। यहाँ एक प्रश्न है कि क्या जैन धर्म केवल निवृत्ति प्रधान है? नहीं, निवृत्ति के अतिरिक्त यहाँ प्रवृत्ति विषयक कर्मकाण्ड तथा साहित्य भी उपलब्ध हैं। विभिन्न धार्मिक मान्यताओं की जैन धर्म में उपेक्षा नहीं की गई है अपितु उनका सम्मान करते हुए विधिवत् अपनी परम्परा में अपनाया गया है। जैसे- अवतारी राम, लक्ष्मण, कृष्ण, बलराम आदि को तीर्थंकर आदि महापुरुषों (शलाका पुरुषों) के साथ जोड़कर आदर दिया गया है और जैनेतर धर्मी भाइयों की भावनाओं को सम्मान दिया गया है। इतना ही नहीं वैदिक पुराणों में घृणित भाव से चित्रित रावण, जरासंध जैसे राजाओं को भी जैन पुराणों में सम्मान देकर अनार्यों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचने दी है। रावण को दशमुखी राक्षस न मानकर विद्याधरवंशी बतलाया है। पंडित प्रवर रावण को सीता के साथ बलात्कार करने की सलाह दी जाती है परन्तु वह अपने व्रत के कारण वैसा प्रयत्न नहीं करता है। हनुमान, सुग्रीव आदि को बानर न मानकर विद्याधरवंशी बतलाया है। उनका ध्वजचिह्न अवश्य बानर था। इस तरह जैन पुराणों में पक्षपात की संकुचित भावना से ऊपर उठकर समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है। इसी तरह नागवंशी राजाओं की हिंसात्मक पूजा-विधियों का निषेध करके उनके प्रमुख यक्ष नागादि देवताओं को अपने तीर्थंकर के रक्षक के रूप में स्थान दिया है। पशुओं को भी आदर देते हुए उन्हें भी तीर्थंकर चिह्न के रूप में समाहित किया गया है। इसी तरह वनस्पति, वायु, जल आदि के संरक्षण को आवश्यक बतलाते हुए पर्यावरण संरक्षण को महत्त्व दिया गया है। यह समन्वयात्मक नीति जैनियों की अवसरवादिता नहीं है अपितु जैनधर्म के आधारभूत सिद्धान्तों की स्वाभाविक पृष्ठभूमि है।

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