Book Title: Sramana 2001 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 4
________________ - - % AR सम्पादकीय श्रमण का अक्टूबर-दिसम्बर २००१ का अङ्क पाठकों के कर कमलों में उपस्थित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। श्रमण का यह अङ्क जैन विद्या के सर्वमान्य विद्वान् प्रो० सागरमल जैन के लेखों के सङ्कलन के रूप में है। इस संग्रह के दूसरे, तीसरे और चौथे लेख "जिनागमों की मूल भाषा' नामक सङ्गोष्ठी में २७-२८ अप्रैल १९९७ को अहमदाबाद में पढ़े गये थे। यद्यपि उक्त निबन्ध प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी से प्रकाशित हो चुके हैं फिर भी उनकी महती उपयोगिता को देखते हुए हम श्रमण में उन्हें पुन: प्रकाशित कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में हम प्रो० सागरमलजी जैन के अत्यन्त आभारी हैं जिन्होंने न केवल अपने पूर्व प्रकाशित आलेखों के प्रकाशन की अनुमति दी बल्कि अपने दो अप्रकाशित आलेखों- क्या ब्राह्मी लिपि में 'न' और 'ण' के लिये एक ही आकृति थी? और ओङ्गमागधी प्राकृत : एक नया शगुफा को भी हमें प्रकाशनार्थ उपलब्ध कराया। इस संग्रह में प्रकाशित ८वाँ और ९वाँ लेख दो सङ्गोष्ठियों में उनके द्वारा पढ़े गये थे तथा १०वाँ आलेख प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से प्रकाशित प्रवचनसारोद्धार नामक ग्रन्थ की भूमिका के रूप में लिखा गया था। हमें पूर्ण विश्वास है कि श्रमण के पूर्व अङ्कों की भाँति यह अङ्क भी उपयोगी सिद्ध होगा। । सम्पादक - - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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