Book Title: Sramana 1997 04 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 5
________________ जैनधर्म में सामाजिक चिन्तन जैनधर्म निवृत्तिमार्गी श्रमण-परम्परा का धर्म है। सामान्यतया इसे सामाजिक न मानकर व्यक्तिवादी धर्म माना जाता है, किन्तु जैनधर्म को एकान्त रूप से व्यक्तिवादी धर्म नहीं कहा जा सकता। यह सत्य है कि उसका विकास निवृत्तिमार्गी संन्यासप्रधान श्रमण-परम्परा में ही हुआ है किन्तु मात्र इस आधार पर उसे असामाजिक या व्यक्तिवादी धर्म मानना, एक भ्रांति ही होगी। जीवन में दुःख की यथार्थता और दुःखविमुक्ति का जीवनादर्श, यह सम्पूर्ण श्रमण-परम्परा का अथ और इति है। किन्तु दु:ख और दुःखविमुक्ति के ये सम्प्रत्यय मात्र वैयक्तिक नहीं हैं, उनका एक सामाजिक पक्ष भी है। दुःखविमुक्ति का उनका आदर्श मात्र वैयक्तिक दुःखों की विमुक्ति नहीं है अपितु सम्पूर्ण प्राणिजगत् के दुःखों की विमुक्ति है और यही उन्हें समाज से जोड़ देता है। श्रमणधारा में धर्म और नीति को अवियोज्य माना गया है और धर्म एवं नीति की यह अवियोज्यता भी उसमें सामाजिक सन्दर्भ को स्पष्ट कर देती है। भारतीय चिन्तन में सामाजिक चेतना सामाजिक चेतना के विकास की दृष्टि से भारतीय चिन्तन को तीन युगों में बाँटा जा सकता है -- (१) वैदिक युग, (२) औपनिषदिक युग, (३) जैन और बौद्ध युग। सर्वप्रथम जहाँ वैदिक युग में 'संगच्छध्वं संवदध्वं संवोमनांसि जानताम्'' अर्थात् तुम मिलकर चलो, तुम मिलकर बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें - इस रूप में सामाजिक चेतना को विकसित करने का प्रयत्न किया गया, तो वहीं औपनिषदिक युग में उस सामाजिक एकत्व की चेतना के लिये दार्शनिक आधार प्रस्तुत किये गये। ईशावास्योपनिषद् में ऋषि कहता है कि जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है वह अपनी इस एकत्व की अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता। औपनिषदिक चिन्तन में सामाजिकता का आधार यही एकत्व की अनुभूति रही है। जब एकत्व की दृष्टि विकसित होती है तो घृणा और विद्वेष के तत्त्व स्वत: समाप्त हो जाते हैं क्योंकि 'पर' रहता ही नहीं, अत: किससे घृणा या विद्वेष किया जाये। घृणा, विद्वेष आदि परायेपन के भाव में ही सम्भव होते हैं, जब सभी स्व या आत्मीय हों तो घृणा या विद्वेष का अवसर ही कहाँ रह जाता है। इस प्रकार औपनिषदिक युग में सामाजिक चेतना को एक सुदृढ़ दार्शनिक आधार प्रदान किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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