Book Title: Solah Dishao Sambandhi Prachin Ullekh
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 2
________________ સેલહ દિશાઓ સમ્બન્ધી પ્રાચીન ઉલ્લેખ [113 एयासि चेव अण्हमंतरा अट्ट हुँति अण्णाओ / सोलस सरीरउस्सयबाहल्ला सव्वतिरियदिसा // 53 // हेवा पायतलाणं अहोदिसा सीसउवरिमा उड्ढा / एया अट्ठारस वी पण्णवगदिसा मुणेयव्वा // 54 // एवं एकप्पियाणं दसण्ह अण्ह चेव य दिसाणं / नामाई वुच्छामी जहक्कामं आणुपुवीए // 55 // पुवा 1, य पुच्चदक्षिण 2, दक्खिण 3, तह दक्खिणावरा 4 चेव / अवरा 5, य अवरउत्तर 6, उत्तर 7, पुवुत्तरा 8 चेव // 56 // सामुत्थाणी 1, कविला 2, खेलिज्जा 3, खलु तहेव अहिधम्मा 4 / परिया 5, धम्मा 6, य तहा सावित्ती 7, पण्णवित्ती 8 य // 57 // हेट्ठा नेरइयाणं अहोदिसा उवमणि उ देवाणं / एयाई नामाइं पण्णवगस्सा दिसाणं तु // 58|| इन गाथाओं में से छप्पनवीं गाथामें चार दिशायें और दिशाओंके बीचमें रही हुई चार विदिशायें, इस तरह आठ दिशाओंके नाम हैं और 57 वी गाथामें उपरि निर्दिष्ट आठ दिशाओंके बीचमें स्थित आठ विदिशाओं के नाम हैं / जिनके क्रमसे ये नाम हैं पूर्वा 1, सामुत्थानी 2, पूर्वदक्षिणा 3, कपिला 4, दक्षिणा 5, खेलिजा 6, दक्षिणापरा 7, अभिधर्मा 8, अपरा 9, परिया 10, अपरोत्तरा 11, धर्मा 12, उत्तरा 13, सावित्री 14, मिलानेसे अठारह प्रज्ञापक दिशायें होती हैं / दिशाओंकी विविधताके विषयमें विशिष्ट परिचय पानेकी इच्छावालोंको आचारांगसूत्र नियुक्तिकी गाथा ४०से 62 देखनी चाहिए / [ 'राजस्थान भारती', जुलाई-अक्टूबर, 1954 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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