Book Title: Solah Dishao Sambandhi Prachin Ullekh
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलह दिशाओं सम्बन्धी प्राचीन उल्लेख "राजस्थान-भारती" पत्रिकाके भाग ३ के ३-४ संयुक्त अंकमें भाई श्री बद्रीप्रसादजी साकरियाने राजस्थानी साहित्यमें १६ दिशायें' शीर्षक लेखमें राजस्थानी साहित्यमें प्राप्त १६ दिशाओका परिचय दिया है। यह सूचना अवश्य महत्त्वकी है और आधुनिक साहित्यमें इन विशेष दिशाओंका नामोल्लेख नहीं पाया जाता । परन्तु उनको इन दिशाओंके नामोंका या नामान्तर विषयक कोई प्राचीन उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है। अतः उन्होंने अपने लेखमें सूचित किया है कि " दिशाओं और विदिशाओंकी मध्यस्थानसूचक संज्ञाओ वाली विशेष विदिशाओंकी सूचना संसारका कोई कोश-साहित्य नहीं देता । " परन्तु आचारांग सूत्रकी नियुक्तिमें, जहां पर दिशाओंके विषयमें विस्तृत चर्चा की गई है, वहां पर नियुक्तिकार स्थविर आचार्य भगवन्तने दश क्षेत्र दिशाओं एवं अठारह प्रज्ञापक दिशाओंके नाम सूचित किये हैं। दश क्षेत्र दिशाओके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं इंद १, ऽग्गेई २, जम्मा ३, य नेरुती ४, वारुणी ५, य वायव्वा ६ । सोमा ७, ईसाणा ८, वि य विमला ९, य तमा १०, य बोद्धव्वा ॥ (आचारांग नियुक्ति, गाथा ४३) इस गाथामें क्रमशः इन्द्रा १, आग्नेयी २, याम्या ३, नैती ४, वारुणी ५, वायव्या ६, सोमा ७, ईशाना ८, विमला ९, और तमा १०, इन दश क्षेत्रदिशाओंके नामोंका उल्लेख है। इस गाथामें ऊर्ध्व दिशाकी ‘विमला' और अधोदिशाकी ' तमा' नामसे पहचान करवाई गई है। अठारह प्रज्ञापक दिशाओंके नाम नियुक्तिमें इस प्रकार मिलते हैं दाहिणपासम्मि उ दाहिणा दिसा उत्तरा उ वामेणं । एयासिमंतरेणं अण्णा चत्तारि विदिसाओ ॥५२॥ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સેલહ દિશાઓ સમ્બન્ધી પ્રાચીન ઉલ્લેખ [113 एयासि चेव अण्हमंतरा अट्ट हुँति अण्णाओ / सोलस सरीरउस्सयबाहल्ला सव्वतिरियदिसा // 53 // हेवा पायतलाणं अहोदिसा सीसउवरिमा उड्ढा / एया अट्ठारस वी पण्णवगदिसा मुणेयव्वा // 54 // एवं एकप्पियाणं दसण्ह अण्ह चेव य दिसाणं / नामाई वुच्छामी जहक्कामं आणुपुवीए // 55 // पुवा 1, य पुच्चदक्षिण 2, दक्खिण 3, तह दक्खिणावरा 4 चेव / अवरा 5, य अवरउत्तर 6, उत्तर 7, पुवुत्तरा 8 चेव // 56 // सामुत्थाणी 1, कविला 2, खेलिज्जा 3, खलु तहेव अहिधम्मा 4 / परिया 5, धम्मा 6, य तहा सावित्ती 7, पण्णवित्ती 8 य // 57 // हेट्ठा नेरइयाणं अहोदिसा उवमणि उ देवाणं / एयाई नामाइं पण्णवगस्सा दिसाणं तु // 58|| इन गाथाओं में से छप्पनवीं गाथामें चार दिशायें और दिशाओंके बीचमें रही हुई चार विदिशायें, इस तरह आठ दिशाओंके नाम हैं और 57 वी गाथामें उपरि निर्दिष्ट आठ दिशाओंके बीचमें स्थित आठ विदिशाओं के नाम हैं / जिनके क्रमसे ये नाम हैं पूर्वा 1, सामुत्थानी 2, पूर्वदक्षिणा 3, कपिला 4, दक्षिणा 5, खेलिजा 6, दक्षिणापरा 7, अभिधर्मा 8, अपरा 9, परिया 10, अपरोत्तरा 11, धर्मा 12, उत्तरा 13, सावित्री 14, मिलानेसे अठारह प्रज्ञापक दिशायें होती हैं / दिशाओंकी विविधताके विषयमें विशिष्ट परिचय पानेकी इच्छावालोंको आचारांगसूत्र नियुक्तिकी गाथा ४०से 62 देखनी चाहिए / [ 'राजस्थान भारती', जुलाई-अक्टूबर, 1954 ]