Book Title: Sittunja Kappo
Author(s): Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

Previous | Next

Page 17
________________ शत्रुञ्जय-कल्पवृत्तौ .0000000000000000000000. 000000000000000000000000000000000000000 सुयधम्मकित्तितं तित्थं देविंद [विंद] वंदिअंथुणिमो। पाहुडए विजाणं देसिअमिगवीसनामं जं // 1 // व्याख्या-श्रुतस्य धर्मः-बोधः श्रुतधर्मः-सिद्धान्तः / अथवा श्रत एव धर्मः / स च द्विधा-श्रमणधर्मः श्राद्धधर्मश्च, शास्त्रे उक्तं चदुह दवभावधम्मो दव्वे दव्यस्स दव्यमेवऽहवा / तित्ताइसहावो वा गम्मा इत्थी कुलिंगो वा // 1 // [आव०] दुह होइ भावधम्मो सुअ चरणे वा सुम्मि सज्झायो / चरणम्मि समणधम्मो खंतीमाई भवे दसहा // 2 // . एवंविधे श्रुतधर्मे-धर्मशास्त्रे तस्मिन् कीर्तितं-व्याख्यातं गणधरादिभिः 'तीर्थ शत्रुञ्जयाभिवं तीर्थम् / तीयते संसाराम्भोधिरनेनेति तीर्थम्, भवोद्भूततापोपशामकत्वात् तीर्थम् . उक्तं चनाम ठवणातित्थं दबतित्थं च भावतित्थं च / इकिपि अ इत्तोऽणेगविहं होइ नायव्वं // 1 // दाहोवसमं तहाइ छेअणं मलपवाहणं चेव / तीहिं अत्थेहि निउत्तं तम्हा तं दबो तित्थं // 2 // कोहम्मि अ निग्गहिए दाहस्सोवसमणं भवे तित्थं / लोहम्मि अ निग्गहिए तण्हावुच्छेअणं होइ // 3 // अविहं कम्मरयं बहुएहिं भवेहिं संचिअं जम्हा / तव-संजमेण धोवइ तम्हा तं भाव प्रो तित्थं // 4 // दंसण-नाण-चरित्तेसु निउत्तं जिणवरेहिं सव्वेहिं / तिसु अत्थेसु निउत्तं तम्हा तं भावो तित्थं // 5 // ___ 'देविंदत्ति / देवाः-सुरास्तेषामिन्द्राः-स्वामिनः तेषां 'वृन्दानि' समूहाः तैर्वन्दितं 'वदि स्तुत्यभिवादनयोः' क्ते रूपं, 'थुणिमो' स्तवीमि, तत्तीर्थ 'पाहुडे'त्ति प्राभृतं-अधिकारविशेषः विद्यानां-चतुर्दशपूर्वाणां प्राभृते 'देशितं' कथितं, एकविंशतिः नामानि यस्य तत, स्तुमः / द्वितीयोऽर्थः कथ्यते-'श्रुतो' विख्यातो धर्मकीर्तिरुपाध्यायस्तस्यापरं नाम धर्मघोषमूरिस्तेन कीर्तितं-स्तुतं, तीर्थ देविंदत्ति धर्मघोपसूरेगुरुः देवेन्द्राचार्यः, तेन 'वन्दितं' स्तुतं 'थुणिमो' सु (स्तुमो) विद्यानन्दसूरिणा देशित-वं कुरु कल्पं धमघोषस्याप्रे प्राभृते-अधिकारे अधिकारविशेषे वा कथितं विद्यानन्दैर्देशितं 'एकविंशतिनाम' यस्य तत् / शत्रुञ्जयतीर्थस्य एकविंशतिर्दत्तानि यानि सुरनृपनरैमुनिभिश्च तेषां नामकथनाय गाथात्रयमुच्यते विमलगिरि मुत्तिनिलय सित्तुजो सिद्धखित्त पुंडरिओ। 'सिरिसिद्धसेहरी सिद्धपवओ सिद्धराओ अ॥२॥ 'बाहुबली' मरुदेवो 'भगीरहो"सहसपत्त सयवत्तो। कूड"य अट्ट त्तरओ"नगाहिराओ सहसकमलो // 3 // ढंको कोडिनिवासो"लोहिच्चो तालज्झओ कयंबुत्ति सुरनरमुणिकयनामो सो विमलगिरी जओ तित्थं // 4 // तत्रादौ विमलगिरे म्न उत्पत्तिः प्रोच्यते, तथाहिअभ्र लिहमहेभ्याईन्-महीरमणमन्दिरैः / रराज नगरं नाम्ना पद्मा भूमिभूषणम् / / 1 / / तत्रासीन् मदनः क्षोणी-पतिायैकमन्दिरम् / तथाऽात् पृथिवीं सौख्य-भाजोऽभवन् यथा प्रजाः // 2 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 ... 404