Book Title: Shwetambar tatha Digambar ke Saman Asaman Mantavya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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________________ श्वेताम्बर-दिगम्बर के समान मत ३४१ तात्त्विक भेद नहीं है । श्वेताम्बर-ग्रन्थों में सर्वत्र श्राहार के तीन भेद हैं और दिगम्बर-ग्रन्थों में कहीं छह भेद भी मिलते हैं । पृष्ठ-५०, नोट ! परिहारविशुद्ध संयम का अधिकारी कितनी उम्र का होना चाहिए, उसमें कितना ज्ञान आवश्यक है और वह संयम किसके समीप ग्रहण किया जा सकता है और उसमें विहार आदि का कालनियम कैसा है, इत्यादि उसके संबन्ध की बातें दोनों संप्रदाय में बहुत अंशों में समान हैं। पृष्ठ-५६, नोट । क्षायिकसम्यक्त्व जिनकालिक मनुष्य को होता है, यह बात दोनों संप्रदाय को इष्ट है | पृष्ठ-६६, नोट । केवली में द्रव्यमन का संबन्ध दोनों संप्रदाय में इष्ट है । पृष्ठ-१०१, नोट । मिश्रसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में मति आदि उपयोगों की ज्ञान-अज्ञान उभयरूपता गोम्मटसार में भी है । पृष्ठ-१०६, नोट । गर्भज मनुष्यों की संख्या के सूचक उन्तीस अङ्क दोनों संप्रदाय में तुल्य हैं। पृष्ठ-११७, नोट । इन्द्रियमार्गणा में द्वीन्द्रिय श्रादि का और कायमार्गणा में तेजःकाय आदि का विशेषाधिकत्व दोनों संप्रदाय में समान इष्ट है । पृष्ठ-१२२, नोट । वक्रगति में विग्रहों की संख्या दोनों संप्रदाय में समान है । फिर भी श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में कहीं-कहीं जो चार विग्रहों का मतान्तर पाया जाता है, वह दिगम्ब रीय ग्रन्थों में देखने में नहीं आया। तथा चक्रगति का काल-मान दोनों सम्प्रदाय में तुल्य है। वक्रगति में अनाहारकत्व का काल-मान, व्यवहार और निश्चय, दो दृष्टियों से विचारा जाता है। इनमें से व्यवहार-दृष्टि के अनुसार श्वेताम्बर-प्रसिद्ध तत्त्वार्थ में विचार है और निश्चय-दृष्टि के अनुसार दिगम्बरप्रसिद्ध तत्त्वार्थ में विचार है। अतएव इस विषय में भी दोनों सम्प्रदाय का वास्तविक मत-मेद नहीं है ! पृष्ठ १४३ । अवधिदर्शन में गुणस्थानों की संख्या के विषय में सैद्धान्तिक एक और कार्मग्रन्थिक दो, ऐसे जो तीन पक्ष हैं, उनमें से कार्मग्रन्थिक दोनों ही पक्ष दिगम्बरीय ग्रन्थों में मिलते हैं । पृष्ठ-१४६ । केवलज्ञानी में श्राहारकत्व, आहार का कारण असातवेदनीय का उदय और औदारिक पुद्गलों का ग्रहण, ये तीनों बातें दोनों सम्प्रदाय में समान मान्य हैं । पृष्ठ-१४८। गुणस्थान में जीवस्थान का विचार गोम्मटसार में कर्मग्रन्थ की अपेक्षा कुछ भिन्न जान पड़ता है । पर वह अपेक्षाकृत होने से वस्तुतः कर्मग्रन्य के समान ही है । पृष्ठ-१६१, नोट। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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