Book Title: Shwetambar tatha Digambar ke Saman Asaman Mantavya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/229070/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर तथा दिगम्बर के समान-असमान मन्तव्य' समान मन्तव्य निश्चय और व्यवहार दृष्टि से जीव शब्द की व्याख्या दोनों संप्रदाय में तुल्प है। पृष्ठ-४ । इस संबन्ध में जीवकाण्ड का 'प्राणाधिकार' प्रकरण और उसकी टीका देखने योग्य है। मार्गणास्थान शब्द की व्याख्या दोनों संप्रदाय में समान है। पृष्ठ-४ । गुणस्थान शब्द की व्याख्या-शैली कर्मग्रन्थ और जीवकाण्ड में भिन्न-सी है, पर उसमें तात्त्विक अर्थ-भेद नहीं है । पृष्ठ-४ । उपयोग का स्वरूप दोनों सम्प्रदायों में समान माना गया है | पृष्ठ-५ । कर्मग्रन्थ में अपर्याप्त संज्ञी को तीन गुणस्थान माने हैं, किन्तु गोम्मटसार में पाँच माने हैं। इस प्रकार दोनों का संख्याविषयक मतभेद है, तथापि वह अपेक्षाकृत है, इसलिए वास्तविक दृष्टि से उसमें समानता ही है । पृष्ठ-१२ । केवलज्ञानी के विषय में संज्ञित्व तथा असंज्ञित्व का व्यवहार दोनों संप्रदाय के शास्त्रों में समान है। पृष्ठ-१३ । __वायुकाय के शरीर की ध्वजाकारता दोनों संप्रदाय को मान्य है । पृष्ठ-२०। छाद्मस्थिक उपयोगों का काल-मान अन्तर्मुहूर्त प्रमाण दोनों संप्रदायों को मान्य है । पृष्ठ-२०, नोट । भावलेश्या के संबन्ध की स्वरूप, दृष्टान्त आदि अनेक बातें दोनों संप्रदाय में तुल्य है । पृष्ठ-३३ ।। चौदह मार्गणाओं का अर्थ दोनों संप्रदाय में समान है तथा उनकी मूल गाथाएँ भी एक-सी हैं । पृष्ठ-४७, नोट । सम्यक्त्व की व्याख्या दोनों संप्रदाय में तुल्य है । पृष्ठ-५०, नोट । व्याख्या कुछ भिन्न सी होने पर भी आहार के स्वरूप में दोनों संप्रदाय का १. इसमें सभी पृष्ठ संख्या जहाँ ग्रन्थ नाम नहीं है वहाँ हिन्दी चौथे कर्मग्रन्थ की समझी जाय । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-दिगम्बर के समान मत ३४१ तात्त्विक भेद नहीं है । श्वेताम्बर-ग्रन्थों में सर्वत्र श्राहार के तीन भेद हैं और दिगम्बर-ग्रन्थों में कहीं छह भेद भी मिलते हैं । पृष्ठ-५०, नोट ! परिहारविशुद्ध संयम का अधिकारी कितनी उम्र का होना चाहिए, उसमें कितना ज्ञान आवश्यक है और वह संयम किसके समीप ग्रहण किया जा सकता है और उसमें विहार आदि का कालनियम कैसा है, इत्यादि उसके संबन्ध की बातें दोनों संप्रदाय में बहुत अंशों में समान हैं। पृष्ठ-५६, नोट । क्षायिकसम्यक्त्व जिनकालिक मनुष्य को होता है, यह बात दोनों संप्रदाय को इष्ट है | पृष्ठ-६६, नोट । केवली में द्रव्यमन का संबन्ध दोनों संप्रदाय में इष्ट है । पृष्ठ-१०१, नोट । मिश्रसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में मति आदि उपयोगों की ज्ञान-अज्ञान उभयरूपता गोम्मटसार में भी है । पृष्ठ-१०६, नोट । गर्भज मनुष्यों की संख्या के सूचक उन्तीस अङ्क दोनों संप्रदाय में तुल्य हैं। पृष्ठ-११७, नोट । इन्द्रियमार्गणा में द्वीन्द्रिय श्रादि का और कायमार्गणा में तेजःकाय आदि का विशेषाधिकत्व दोनों संप्रदाय में समान इष्ट है । पृष्ठ-१२२, नोट । वक्रगति में विग्रहों की संख्या दोनों संप्रदाय में समान है । फिर भी श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में कहीं-कहीं जो चार विग्रहों का मतान्तर पाया जाता है, वह दिगम्ब रीय ग्रन्थों में देखने में नहीं आया। तथा चक्रगति का काल-मान दोनों सम्प्रदाय में तुल्य है। वक्रगति में अनाहारकत्व का काल-मान, व्यवहार और निश्चय, दो दृष्टियों से विचारा जाता है। इनमें से व्यवहार-दृष्टि के अनुसार श्वेताम्बर-प्रसिद्ध तत्त्वार्थ में विचार है और निश्चय-दृष्टि के अनुसार दिगम्बरप्रसिद्ध तत्त्वार्थ में विचार है। अतएव इस विषय में भी दोनों सम्प्रदाय का वास्तविक मत-मेद नहीं है ! पृष्ठ १४३ । अवधिदर्शन में गुणस्थानों की संख्या के विषय में सैद्धान्तिक एक और कार्मग्रन्थिक दो, ऐसे जो तीन पक्ष हैं, उनमें से कार्मग्रन्थिक दोनों ही पक्ष दिगम्बरीय ग्रन्थों में मिलते हैं । पृष्ठ-१४६ । केवलज्ञानी में श्राहारकत्व, आहार का कारण असातवेदनीय का उदय और औदारिक पुद्गलों का ग्रहण, ये तीनों बातें दोनों सम्प्रदाय में समान मान्य हैं । पृष्ठ-१४८। गुणस्थान में जीवस्थान का विचार गोम्मटसार में कर्मग्रन्थ की अपेक्षा कुछ भिन्न जान पड़ता है । पर वह अपेक्षाकृत होने से वस्तुतः कर्मग्रन्य के समान ही है । पृष्ठ-१६१, नोट। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ____ जैन धर्म और दर्शन : गुणस्थान में उपयोग की संख्या कर्मग्रन्थ और गोम्मटसार में तुल्य है। पृष्ठ-१६७, नोट! - एकेन्द्रिय में सासादनभाव मानने और न माननेवाले, ऐसे जो दो पक्ष श्वेताम्बर-अन्थों में हैं, दिगम्बर-अन्थों में भी हैं। पृष्ठ-१७१, नोट । - श्वेताम्बर-ग्रन्थों में जो कहीं कर्मबन्ध के चार हेतु, कहीं दो हेतु और कहीं पाँच हेतु कहे हुए हैं; दिगम्बर ग्रन्थों में भी वे सब वर्णित हैं । पृष्ठ-१७४, नोट । बन्ध-हेतुओं के उत्तर भेद आदि दोनों संप्रदाय में समान हैं। पृष्ठ-१७५, नोट । - सामान्य तथा विशेष बन्ध-हेतुओं का विचार दोनों संप्रदाय के ग्रन्थों में है। पृष्ठ-१८१, नोट। एक संख्या के अर्थ में रूप शब्द दोनों संप्रदाय के ग्रन्थों में मिलता है । पृष्ठ-२१८, नोट | ... कर्मग्रन्थ में वर्णित दस तथा छह क्षेप त्रिलोकसार में भी हैं। पृष्ठ-२२१, नोट । उत्तर प्रकृतियों के मूल बन्ध-हेतु का विचार जो सर्वार्थसिद्धि में है, वह पञ्चसंग्रह में किये हुए विचार से कुछ भिन्न-सा होने पर भी वस्तुतः उसके समान ही है । पृष्ठ-२२७ । कर्मग्रन्थ तथा पञ्चसंग्रह में एक जीवाश्रित भावों का जो विचार है, गोम्मटसा में बहुत अंशों में उसके समान ही वर्णन है । पृष्ठ-२२६ । असमान मन्तव्य श्वेताम्बर-ग्रन्थों में तेजःकाय के वैक्रिय शरीर का कथन नहीं है, पर दिगम्बर-ग्रन्थों में है। पृष्ठ-१६, नोट । ... श्वेताम्बर संप्रदाय की अपेक्षा दिगम्बर संप्रदाय में संशी-असंशी का व्यवहार कुछ भिन्न है। तथा श्वेताम्बर-ग्रन्थों में हेतुवादोपदेशिकी आदि संज्ञाओं का विस्तृत वर्णन है, पर दिगम्बर-ग्रंथो में नहीं है । पृष्ठ-३६ । . श्वेताम्बर-शास्त्र-प्रसिद्ध करण पर्याप्त शब्द के स्थान में दिगम्बर-शास्त्र में निवृत्त्यपर्यास शब्द है। व्याख्या भी दोनों शब्दों की कुछ भिन्न है। पृष्ठ-४१] श्वेताम्बर-ग्रंथों में केवल ज्ञान तथा केवलदर्शन का क्रमभावित्व, सहभावित्व और अभेद ये तीन पक्ष हैं, परन्तु दिगम्बर ग्रंथों में सहभाविप्न का एक ही पक्ष है। पृष्ठ-४३। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर-दिगम्बर में मतभेद 343 लेश्या तथा श्रायु के बन्धानन्ध की अपेक्षा से कषाय के जो चौदह और बीस भेद गोम्मटसार में हैं, वे श्वेताम्बर-ग्रन्थों में नहीं देखे गए / पृष्ठ-१५, नोट / ____ अपर्याप्त अवस्था में औपशमिकसम्यक्त्व पाए जाने और न पाए जाने के संबन्ध में दो पक्ष श्वेताम्बर-ग्रन्थों में हैं, परन्तु गोम्मटसार में उक्त दो में से पहिला पक्ष ही है / पृष्ठ-७०, नोट। अज्ञान-त्रिक में गुणस्थानों की संख्या के संबन्ध में दो पक्ष कर्म-ग्रन्थ में मिलते हैं, परन्तु गोम्मटसार में एक ही पक्ष है | पृष्ठ-८२, नोट / गोम्मटसार में नारकों की संख्या कर्मग्रन्थ-वर्णित संख्या से भिन्न है। पृष्ठ-११६, नोट। द्रव्यमन का श्राकार तथा स्थान दिगम्बर संप्रदाय में श्वेताम्बर की अपेक्षा भिन्न प्रकार का माना है और तीन योगों के बाह्याभ्यन्तर कारणों का वर्णन राजवार्तिक में बहुत स्पष्ट किया है / पृष्ठ-१३४ / मनःपर्यायज्ञान के योगों की संख्या दोनों संप्रदाय में तुल्य नहीं है। श्वेताम्बर-ग्रन्थों में जिस अर्थ के लिए आयोजिकाकरण, श्रावर्जितकरण और आवश्यककरण, ऐसी तीन संज्ञाएँ मिलती हैं, दिगम्बर-ग्रन्थों में उस अर्थ के लिए सिर्फ श्रावर्जितकरण, यह एक संख्या है। पृष्ठ -155 / श्वेताम्बर-ग्रन्थों में काल को स्वतन्त्र द्रव्य भी माना है और उपचरित भी। स्वरूप दोनों संप्रदाय के ग्रन्थों में एक सा नहीं है / पृष्ठ -157 / किसी किसी गुणस्थान में योगों की संख्या गोम्मटसार में कर्म-ग्रन्थ की अपेक्षा भिन्न है / पृष्ठ-१६३, नोट / दूसरे गुणस्थान के समय ज्ञान तथा अज्ञान माननेवाले ऐसे दो पक्ष श्वेताम्बर-ग्रन्थों में हैं, परन्तु गोम्मटसार में सिर्फ दूसरा पक्ष है / पृष्ठ-१६६, नोट। गुणस्थानों में लेश्या की संख्या के संबन्ध में श्वेताम्बर ग्रन्थों में दो पक्ष हैं और दिगम्बर-ग्रन्थों में सिर्फ एक पश्च है ! पृष्ठ-१७२, नोट / जीव सम्यक्त्वसहित मरकर स्त्री रूप में पैदा नहीं होता, यह बात दिगम्बर संप्रदाय को मान्य है, परन्तु श्वेताम्बर संप्रदाय को यह मन्तव्य इष्ट नहीं हो सकता क्योंकि उसमें भगवान् मल्लिनाथ का स्त्री-वेद तथा सम्यक्त्वसहित उत्पन्न होना माना गया है। [चौथा कर्मप्रन्थ