Book Title: Shwetambar Mul Sangh evam Mathr Sangh Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf View full book textPage 6
________________ १६२ को जानना होगा। सर्वप्रथम हमें दक्षिण भारत में नोणमंगल की तामपट्टिकाओं पर 'मूलसंघानुष्ठिताय एवं 'मूलसंघेनानुष्ठिताय ऐस उल्लेख मिलते हैं। ये दोनों ताम्रपट्टिकायें क्रमशः लगभग ईस्वी सन् 370 और ई. सन् 425 की मानी जाती है। किन्तु इनमें निम्रन्थ, कुर्चक, यापनीय या श्वेतफ्ट आदि के नामों का उल्लेख नहीं होने से प्रथम दृष्टि में यह कह पाना कठिन है कि इस मूलसंघ का सम्बन्ध उनमें से किस धारा से था। दक्षिण भारत के देवगिरि और हल्सी के अभिलेखों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ईसा की पांचवी शती के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत में निग्रन्थ, याफ्नीय, कूर्चक और श्वेतपट महाश्रमण संघ का अस्तित्व था। किन्तु मूलसंघ का उल्लेख तो हमें ईसा की चतुर्थशती के उत्तरार्ध में मिल जाता है अतः अभिलेखीय आधार पर मूलसंघ का अस्तित्व यापनीय, कूर्चक आदि नामों के पूर्व का है। मुझे ऐसा लगता है कि दक्षिण में इनमें से निर्गन्य संघ प्राचीन है और यापनीय, कुर्चक, श्वेतपट आदि संघ परवर्ती है फिर भी मेरी दृष्टि में निर्गन्य संघ मूलसंघ नहीं कहा जा सकता है। दक्षिण भारत का यह निग्रन्थ महाश्रमण संघ भद्रबाहु ( प्रथम ) की परम्परा के उन अचेल श्रमणों का संघ था, जो ईसा पूर्व तीसरी शती में बिहार से उड़ीसा के रास्ते लंका और तमिल प्रदेश में पहुचे थे। उस समय उत्तर भारत में जैन संघ इसी नाम से जाना जाता था और उसमें गण, शाखा आदि का विभाजन नहीं हुआ था अतः ये श्रमण भी अपने को इसी 'निर्गन्य नाम से अभिहित करते रहे। पुनः उन्हें अपने को मूलसंघी कहने की कोई आवश्यकता भी नहीं थी क्योंकि वहां तब उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं था। यह निर्गन्थसंघ यापनीय, कूर्चक और श्वेतपट्ट संघ से पृथक् था यह तथ्य भी हल्सी और देवगिरि के अभिलखों से सिद्ध है क्योंकि इनमें उसे इनसे पृथक् दिखलाया गया है और तब तक इसका निर्गन्थ संघ नाम सुप्रचलित था। पुनः जब लगभग 100 वर्ष के पश्चात् के अभिलेखों में भी यह निम्रन्थसंघ के नाम से ही सुप्रासिद्ध है तो पूर्व में यह अपने को 'मूलसंघ कहता होगा यह कल्पना निराधार है। अपने को मूलसंघ कहने की आवश्यकता उसी परम्परा को हो सकती है - जिसमें कोई विभाजन हुआ हो, जो दूसरे को निर्मूल या निराधार बताना चाहती होः यह बात पं. नाथुराम जी प्रेमी ने भी स्वीकार की है। यह विभाजन की घटना उत्तर भारत में तब घटित हुई जब लगभग ईसा की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्तर भारत का निर्गन्ध संघ अचेल और सचेल धारा में विभक्त हुआ। साथ ही उसकी अचेल धारा को अपने लिये एक नये नाम की आवश्यकता प्रतीत हुई। उस समय तक उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ अनेक गणों, शाखाओं और कुलों में विभक्त था - यह तथ्य मथुरा के अनेक अभिलेखों से और कल्पसूत्र की स्थविरावली से सिद्ध है। अतः सम्भावना यही है कि उत्तर भारत की इस अचेल धारा ने अपनी पहचान के लिये 'मूलाण नाम चुना हो, क्योंकि इस धारा को बोटिक और यापनीय ~~ ये दोनों ही नाम दूसरों के द्वारा ही दिये गये हैं, जहाँ श्वेताम्बरों अर्थात् उत्तर भारत की सकेल धारा ने उन्हें बोटिक कहा, वहीं दिगम्बरों अर्थात दक्षिण भारत की निर्ग्रन्थ अचेल धारा ने उन्हें यापनीय कहा। डॉ गुलाब चन्द चौधरी ने जो यह कल्पना की कि दक्षिण में निर्गन्थ संघ की १. जैनशिलालेख सं. भाग २, लेखक्रमांक 80 व ४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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