Book Title: Shwetambar Mul Sangh evam Mathr Sangh Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf View full book textPage 4
________________ १६० उसमें मथुरा के स्तूप को देवनिर्मित मानने की परम्परा थी। सातवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक के अनेक श्वेताम्बर ग्रन्थों में इस स्तूप को देवनिर्मित कहा गया है। प्रो. के.डी. बाजपेयी ने जो यह कल्पना की है कि इन मूर्तियों को श्री देवनिर्मित कहने का अभिप्राय श्री देव (जिन) के सम्मान में इन मूर्तियों का निर्मित होना है -- वह भ्रांत है। उन्हें देवनिर्मित स्तूप स्थल पर प्रतिष्ठित करने के कारण देवनिर्मित कहा गया है। श्वे. साहित्यिक स्रोतों से यह भी सिद्ध होता है कि जिनभद्र, हरिभद्र बप्पटिट, वीरसरि आदि श्वेताम्बर मुनि मथुरा आये थे। हरिभद्र ने यहाँ महानिशीथ आदि ग्रन्थों के पुनर्लेखन का कार्य तथा यहाँ के स्तूप और मन्दिरों के जीर्णोद्धार के कार्य करवाये थे। 9वीं शती में बप्पभट्टिसूरि के द्वारा मथुरा के स्तूप एवं मन्दिरों के पुननिर्माण के उल्लेख सुस्पष्ट है । इस आधार पर मथुरा में श्वे. संघ एवं श्वे. मन्दिर की उपस्थिति निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाती है। अब मूल प्रश्न यह है कि क्या श्वेताम्बरों में कोई मूलसंघ और माथुर संघ था और यदि था तो वह कब, क्यों और किस परिस्थिति में अस्तित्व में आया ? मूलसंघ और श्वेताम्बर परम्परा मथुरा के प्रतिमा क्रमांक 1143 के अभिलेख के फ्यूरर के वाचन के अतिरिक्त अभी तक कोई भी ऐसा अभिलेखीय एवं साहित्यक प्रमाण उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह सिद्ध किया जा सके कि श्वेताम्बर परम्परा में कभी मूल संघ का अस्तित्व रहा है। जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं इस अभिलेख वाचन के सम्बन्ध में भी दो मत है -- फ्यूरर आदि कुछ विद्वानों ने उसे 'श्री श्वेताम्बर मूलसंघेन पढा है, जबकि प्रो. के.डी. बाजपेयी ने इसके 'श्री श्वेताम्बर (माथुर ) संघेन होने की सम्भावना व्यक्त की है। सामान्यतया मूलसंघ के उल्लेख दिगम्बर परम्परा के साथ ही पाये जाते हैं। आज यह माना जाता है मूलसंघ का सम्बन्ध दिगम्बर परम्परा के कुन्दकुन्दान्वय से रहा है। किन्तु यदि अभिलेखीय और साहित्यिक साक्ष्यों पर विचार करते हैं तो यह पाते हैं कि मूलसंघ का कुन्दाकुन्दान्वय के साथ सर्वप्रथम उल्लेख दोड्ड कणगालु के ईस्वी सन् 1044 के लेख में मिलता है । यद्यपि इसके पूर्व भी मूलसंघ तथा कुन्दकुन्दान्वय क स्वतन्त्र-स्वतन्त्र उल्लेख तो १. (अ) स. प्रो. ढाकी, प्रो. सागरमल जैन, ऐस्पेक्ट्स आव जैनालाजी, खण्ड-२, (पं. बेचरदास स्मृति ग्रन्थ) हिन्दी विभाग, जैनसाहित्य में स्तूप - प्रो. सागरमल, पृ.१३७-८ ] (ब) विविधतीर्थकल्प - जिनप्रभसूरि, मथुरापुरी कल्प। अर्हत् वचन, वर्ष ४, अंक १, जनवरी २, पृ. १०। (अ) विविधतीर्थकल्प - जिनप्रभसूरि, मथुरापुरी कल्प। (ब) प्रभाकचरित, प्रभाचन्द्र, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, पृ. सं. १३, कलकत्ता, प्र.सं. १६४०, पृ.८८-११११ जैन शिलालेख संग्रह, भाग-२, मणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, सं.४५, हीराबाग, बम्बई ४, प्र.सं. १८५२, लेखक्रमांक १८०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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