Book Title: Shukl Jain Mahabharat 02
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Kashiram Smruti Granthmala Delhi

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Page 15
________________ जैन महाभारत दूसरी बार अपने म्रियमाण प्रियतम कीमोर । जैसे कि कह रही हो कि क्या आप इसी न्यायपद्धति एव वलवते पर हम निरीह वन वासी प्रजा की पालना करते है। क्या हमने किसी को मारा था अथवा हम किसी का धन चुराते है ? जिसके उपलक्ष्य में आपके साथियो ने इतनीनिर्दयता एव कठोरता से मेरे पति का वध किया है ? मैंढ हीखेत खाने लगे तो उसकी रक्षा कैसे हो सकती है यह तो रक्षक के ही भक्षक वन जाने जैसी बात हुई ! केवल घास तृण खाकर, ही जीवन यापन कर देने वाले मेरे पति को मार कर राजन् आप के साथियो को क्या मिला ? भूपति, हिरणी के दुख • तप्त हृदय से नि मृत आर्तनाद को हृदय कर्णो से श्रवण कर रहे थे। उसी की जाति के एक सदस्य के द्वारा उपस्थित किये इस पैशाचिक काड ने नर नाथ का हृदय विदीर्ण कर दिया था। हिसारूपी रग मे रगे मानव रूपी दानव की दानवता से राजा का शरीर सिहर उठा था । उसे ऐसा अनुभव हो रहा था कि मानो समस्त चराचर जगत को अपनी मुखद गोद मे भरणपोषण एव विश्राम प्रदान करने वाली प्रकृति देवी मनुप्य का उपहास उडाती हुई शिक्षा दे रही हो कि-ऐ मानव ! तू सप्टो का सर्वश्रेष्ठ प्राणो हो कर भी मानवता के अभाव मे पशुओं से भी निम्नतर है। तू उनके उपकार से, उनके श्रम से उत्पन्न अन्न, वस्त्र, फल, फूल, दूध, दधि, घी, मक्खन आदि अमृत का सेवन करके स्वय तो जीवित रहना चाहता है। पर अपने जघन्य स्वार्थवश उन जीवित दानानो को जीवित नही रहने देना चाहता । यह तेरी कैसी कृत। नता है ! यदि मानवाकृति प्राप्त की है तो मानवता का यह अ.दि : मूत्र भी सदा सर्वदा स्मरण रख कि -दशवकालिक सूत्र ४,९ संसार भर के प्राणियों को अपनी प्रात्मा के ममान समझो, यहो अहिमा की व्यारया है और यही अहिंसा का भाप्य, महाभाष्य । तथा कसोटी है । (हिमा जो कि मनुप्यत्व का प्रमुख अङ्ग है। है जिस दिन जिस घडी मे तू अपने जीने का अधिकार ले कर बैठा इन है वहो जीने का अधिकार सहज भाव से दूसरों के लिए भी देगा, हो तो मेरे अन्दर दूसरों के जीवन की परवाह करने को मानवता -- .-.-11

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