Book Title: Shrutgyan ki Prapti ka Mul Upay Guru ki Upasana Author(s): Neha Choradiya Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 4
________________ | 118 जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 || जीवन की सभी सफलता और सरसता का यश एक पात्र पर टिकता है। वह पात्र है अनंतोपकारी गुरुदेव। यह हकीकत है तो अपना कर्तव्य बनता है कि अपनी सभी वृत्ति-प्रवृत्ति के केन्द्र गुरुदेव ही रहने चाहिए। बालक किसकी याद में रोता है? मम्मी की। बालक अंगुलि किसकी पकड़ता है? मम्मी की। बालक निर्भयता अनुभव किसके सान्निध्य में करता है? मम्मी की। बालक निश्चिंतता अनुभव किसके सान्निध्य में करता है? मम्मी की। बस, इस बालक जैसी स्थिति हमारी है। गुरुदेव ही हमारे रक्षक हैं, यही हमारे प्राण और यही हमारे आधार हैं । इनकी प्रसन्नता ही हमारी पूंजी है। इनकी स्वस्थता हमारी प्रसन्नता है। इनकी कृपा नज़र ही हमारी कमाई है। इनका अनुग्रह ही हमारा सौभाग्य और इनके मुख पर हँसी ही हमारा सौंदर्य है। हृदय में गुरुदेव के प्रति बहुमान भाव हो तो मोहनीय कर्म अपने को सता नहीं सकता । गुरुदेव की स्मृति से हृदय पुलकित होता है तो पीछे विषय वासना अपने मन पर कब्जा जमाने में सफल हो जाए, यह सम्भव नहीं। गुरुदेव के लिए हृदय पागल बनता है तो फिर कषाय अपने संयम-जीवन को बर्बाद करने में सफल बनता है, इस बात में कोई तथ्य नहीं। यह ताकत है गुरुदेव के प्रति बहुमान भाव की, इसका तात्पर्यार्थ स्पष्ट है, जो भी ज्ञान प्राप्त करना है उसे सम्यक् बनने के लिए गुरुदेव की शरण स्वीकारना चाहिए। इसकी विस्मृति यानी अनंत-अनंत उपकारों की विस्मृति । इनकी अवगणना यानी सद्गुणों की अवगणना । इनके प्रति दुर्भाव यानी सद्गति के प्रति दुर्भाव । इनकी आशातना यानी तीर्थंकर भगवंतों की आशातना । इनकी उपेक्षा यानी परमगति की उपेक्षा। याद रखना, सम्यक् ज्ञान का जानकारी के साथ इतना संबंध नहीं जितना संबंध मोहनीय के क्षयोपशम के साथ है और मोहनीय के क्षयोपशम का जानकारी से इतना संबंध नहीं जितना कृतज्ञता गुण से है। कृतज्ञता गुण का संबंध विद्वत्ता से नहीं जितना नम्रता से है और नम्रता का संबंध बुद्धि की सूक्ष्मता से नहीं, हृदय के अहोभाव से मासतुष मुनि के पास क्या था? भले ही ज्ञानावरणीय का तीव्र उदय था, पर गुरुदेव के प्रति सद्भाव ने उन्हें सद्भाग्य का स्वामी बनाया और यह सद्भाग्य मोहविजेता बनाकर कैवल्यलक्ष्मी का निमित्त बना। जमालि के पास क्या नहीं था? 500 शिष्यों का गुरु पद था, 11 अंग का अध्ययन था, परमात्मा महावीर जैसे तारक पुरुषों के शिष्य थे, पर उन्होंने गुरुदेव के प्रति बहुमान भाव खो दिया था। बुद्धि में उत्पन्न हुए विकारों से वे अहं के शिकार बन गये थे। परिणाम? संयमजीवन को हार बैठे । ज्ञान अज्ञान में परिणत होने से संसार की यात्रा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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