Book Title: Shrutgyan evam Matigyan ek Vivechan Author(s): Hemlata Boliya Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf View full book textPage 4
________________ श्री जैन दिवाकर म्मृति-ग्रन्थ ! चिन्तन के विविध बिन्दु : 478 : से कहा गया है कि श्रु तज्ञान होने के लिए शब्द श्रवण आवश्यक है और शब्द श्रवण मति के अन्तर्गत है तथा यह श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है / जब शब्द सुनाई देता है तब उसके अर्थ का स्मरण होता है। शब्दश्रवणरूप जो व्यापार है वह मतिज्ञान है, उसके पश्चात् उत्पन्न होने वाला ज्ञान श्रु तज्ञान नहीं हो सकता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि श्रु तज्ञान में मतिज्ञान मुख्य कारण है / क्योंकि मतिज्ञान के होने पर भी जब तक श्र तज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम न हो तब तक श्र तज्ञान नहीं हो सकता है / मतिज्ञान तो इसका बाह्य कारण है। उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि श्र तज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम होने पर मन और इन्द्रिय की सहायता से अपने में प्रतिभासमान अर्थ का प्रतिपादन करने में समर्थ जो स्पष्ट ज्ञान है, वह श्रुतज्ञान है। यद्यपि दोनों के स्वरूप विवेचन से ही यह सिद्ध हो जाता है कि श्र तज्ञान मतिज्ञान का भेद नहीं है। फिर भी जैनदार्शनिकों ने पृथक से इस विषय में अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है। जिनभद्रगणि' ने अपने 'विशेषावश्यकभाष्य' में दोनों के भेद को स्पष्ट करते हए लिखा है कि मतिज्ञान का लक्षण भिन्न है और श्रत का लक्षण भिन्न है। मति कारण है, श्रत उसका कार्य है। मति के भेद भिन्न हैं और श्र त के भेद भिन्न हैं / श्रु तज्ञान की इन्द्रिय केवल श्रोत्रेन्द्रिय है और मतिज्ञान की इन्द्रियाँ सभी हैं। मतिज्ञान मूक है इसके विपरीत श्र तज्ञान मुखर है इत्यादि / वैसे भी मतिज्ञान प्रायः वर्तमान विषय का ग्राहक होता है जबकि श्र तज्ञान त्रिकाल विषयक अर्थात भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का ग्राहक होता है। श्र तज्ञान का मतिज्ञान से एक भेद यह है कि मतिज्ञान तो सिर्फ ज्ञान रूप ही है जबकि श्रु तज्ञान ज्ञान रूप भी है और शब्दरूप भी है, इसे ज्ञाता स्वयं भी जानता है और दूसरों को भी ज्ञान कराता है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्र तज्ञान एक स्वतन्त्र ज्ञान है / जिन दार्शनिकों ने इसे मति का ही एक भेद माना है उन्होंने इसके स्वरूप को ठीक से नहीं समझा अन्यथा वे ऐसा नहीं कहते / पताडा. हेमलता बोलिया C/o श्रीमान् बलवन्तसिंहजी बोलिया 35, गंगा गली (गणेश घाटी) पो० उदयपुर 1 विशेषावश्यकभाष्य भाग 1, गाथा 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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