Book Title: Shrutgyan evam Matigyan ek Vivechan Author(s): Hemlata Boliya Publisher: Z_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf View full book textPage 3
________________ : ४७७ : श्र तज्ञान एवं मतिज्ञान : एक विवेचन श्री जैन दिवाकर स्मृति-न्य । श्र तज्ञान मतिपूर्वक होता है। किन्तु उमास्वाति के इस लक्षण से श्र तज्ञान का स्वरूप पूर्णत: स्पष्ट नहीं होता है । इसीलिए जैनदार्शनिकों ने पृथक्-पृथक् इसके लक्षण किये हैं। जिनभद्रगणिं के अनुसार इन्द्रिय और मन की सहायता से जो शब्दानुसारी ज्ञान होता है और अपने में प्रतिभा समान अर्थ का प्रतिपादन करने में जो समर्थ होता है उसे तो भावश्र त कहते हैं तथा जो ज्ञान इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होता है परन्तु शब्दानुसारी नहीं होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं।' जिन भद्रगणि के इस लक्षण से यद्यपि अकलंक सहमत हैं किन्तु इन्होंने शब्द पर जिनभद्रगणि से अधिक बल दिया है। अकलंक का कहना है कि शब्द योजना से पूर्व जो मति, स्मृति, चिन्ता, ज्ञान होते हैं, वे मतिज्ञान हैं और शब्द योजना होने पर वे ही श्रुतज्ञान हैं ।२ अकलंक ने श्रुतज्ञान का यह लक्षण करके अन्य दर्शनों में माने गये उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, सम्भव, ऐतिह्य और प्रतिभा प्रमाणों का अन्तर्भाव श्र तज्ञान में किया है और इनका यह भी कहना है कि शब्द प्रमाण तो श्रुतज्ञान ही है । इनके इस मत का पश्चात्वर्ती जैनदार्शनिकों ने समर्थन भी किया परन्तु उनको इनका शब्द पर इतना अधिक बल देना उचित प्रतीत नहीं हुआ। यद्यपि वे भी इस बात को तो स्वीकार करते हैं कि श्र तज्ञान में शब्द की प्रमुखता होती है। अमृतचन्द्र सूरि ने श्रु तज्ञान का लक्षण करते हुए इतना ही कहा कि मतिज्ञान के बाद स्पष्ट अर्थ की तर्कणा को लिए हुए जो ज्ञान होता है, वह श्र तज्ञान है ।' किन्तु नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक ने तो श्रुतज्ञान का लक्षण इन सबसे एकदम भिन्न किया है। यह हम पूर्व में ही संकेत कर चुके हैं कि श्र तज्ञान मतिपूर्वक होता है इसको ये स्वीकार नहीं करते हैं। इनके इसको स्वीकार नहीं करने का कारण शायद यह रहा होगा कि श्रुतज्ञान के अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक रूप से जो दो भेद हैं, उनमें अनक्षरात्मक श्रुत दिगम्बर-परम्परा के अनुसार शब्दात्मक नहीं है और ऊपर श्र तज्ञान की यह परिभाषा दी गयी है कि शब्द योजना से पूर्व जो मति, स्मृति, चिन्ता, ज्ञान हैं, वे मतिज्ञान हैं और शब्द योजना होने पर वे ही श्रु तज्ञान हैं इस परिभाषा को मानने पर मतिज्ञान और अनक्षरात्मक श्रुत में कोई भेद नहीं रह जाता है । इसीलिए इन्होंने श्रु तज्ञान का लक्षण इन सबसे भिन्न किया है। इनके अनुसार मतिज्ञान के विषयभूत पदार्थ से भिन्न पदार्थ के ज्ञान को श्र तज्ञान कहते हैं। किन्तु श्रु तज्ञान मतिपूर्वक होता है इस कथन में कोई असंगति नहीं है क्योंकि यह इस दृष्टि इंदियमणोणिमित्तं जं विण्णाणं सुताणुसारेणं । णिअयत्थु त्ति समत्थं तं भावसुतं मति सेसं ॥ -विशेषावश्यकभाष्य, भाग १, गाथा ६६ ज्ञानमाद्य मतिः संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधिकम । प्राक नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् ॥ -लघीयस्त्रय, कारिका १० ३ द्रष्टव्य-तत्त्वार्थसार, कारिका २४ ४ अत्थादो अत्यंतरसुवलंमतं मणंति सुदणाणं । -गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4