Book Title: Shreedhar Swami ki Nirvan Bhumi Kundalpur
Author(s): Jaganmohanlal Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ श्रीधर स्वामी की निर्वाण-भूमि : कुण्डलपुर ३७७ यहाँ इस सिद्धक्षेत्र का उल्लेख 'णवण कुण्डली वन्दे' के रूप में उल्लिखित है। यहाँ कुंडली के साथ निर्वाण शब्द भी है । उस शब्दों पर विचार करने पर पर्वत कुण्डली (सपं के) आकार है, ऐसा भी अर्थ होता है । क्षेत्र के दर्शक इसे सहज ही समझ सकेंगे। छैघरिया का मन्दिर सर्प के फणाकार है, उसके बाद यह पर्वत सर्प की तरह बल खाता हुआ कुछ उतार के रूप में है जहाँ एक जिन मंदिर है, फिर ऊपर चढ़ाव है जिस चढ़ाव की समाप्ति पर दो जिन मन्दिर है, फिर दो मंदिरों के बाद पर्वत पर बलखाते हुये उतार है। जहाँ बड़ा मन्दिर (मुख्य मन्दिर) है, फिर चढ़ाव पर एक मन्दिर है, पश्चात् पांडे के मन्दिर तक समान जाकर पीछे सर्प की पूंछ की तरह लंबायमान चला गया है । सर्पाकृति भी पर्वत की कुण्डलाकार के रूप में है। फलतः इसी आकार के कारण संभव है इसे "कुंडली" लिखा गया है । पर्वत के पीछे भाग से अनेक पर्वत भी कुण्डलाकार इससे जुड़े हैं। संस्कृत निर्वाण भक्ति के उल्लेख पर यदि 'प्रबलं' शब्द पर विचार किया जाय, तो "श्रेष्ठ" के अतिरिक्त प्रबल का अर्थ 'अनेक' भी होता है । अतः जिसमें अनेक कुंडल हों उसे प्रबल कुंडल भी कहा जा सकता है । इन दोनों उल्लेखों से दमोह का कुंडलगिरि ही कुंडलाकार या सर्पाकार होने से 'कुंडलगिरि' सिद्ध क्षेत्र प्रमाण सिद्ध होता है । प्रायः अनेक सिद्ध क्षेत्रों का परिचय आकार के आधार पर वर्णित है जैसे मेढ़ागिरि-मेढ़ के आकार, चूलगिरि चूल के आकार, द्रोणगिरि-द्रोण (दोना) के आकार, अथवा भौगोलिक स्थिति के अनुसार द्रोणगिरि का अर्थ होता है, जिस पर्वत के दोनों ओर पानी हो, उसे द्रोणगिरि कह सकते हैं । द्रोणगिरि सिद्ध क्षेत्र के दोनों ओर नदियां बहती है। अतः उसका इस अर्थ में भी सार्थक नाम है। इसी प्रकार कंडल के समान गोलाकार या कुंडली (सप) के समान सर्पाकार होने से इस क्षेत्र का परिचय कुंडलगिरि या कुंडली पर्वत के रूप में दिया गया है। दोनों आकारों के कारण दमोह का कुंडलपुर "कुंडलगिरि" ही सिद्ध क्षेत्र है, यह सिद्ध होता है। ___ इसकी प्रसिद्धि कुंडलपुर के नाम से है, अतः इसे कुंडलगिरि नहीं मानना चाहिये । यह भी तक किन्हीं सज्जनों द्वारा उपस्थित किया जाता है । पर इतनी साधारण बात तो प्रत्येक बुद्धिमान समझता है कि कुण्डलगिरि के समीप ग्राम को 'कुंडलपुर' ही कहा जायेगा । इस क्षेत्र के बदले पांडुगिरि (रामगिरि) को कुंडलगिरि मानने के संबंध में कोठिया जी के मंतव्यों की समीक्षा हमारे सहयोगी पूर्व में कर चुके हैं। अतः उसकी पुनरावृत्ति करने में कोई लाभ नहीं है । यदि पांच पहाड़ियों में इस सिद्ध क्षेत्र का उल्लेख करना अभीष्ट होता तो वे आचार्य अपने उल्लिखित पांच पहाड़ियों में से ही इसका नाम अवश्य लिखते । पांडुगिरि को वृत्ताकार (गोल) लिखा है, इससे कुंडलगिरि हो सकता है-ऐसी कल्पना तो भारत में पाये जाने वाले सभी गोलाकार पर्वतों पर की जा सकती है। यतिवृषभाचार्य ने स्वयं अपने उक्त ग्रंथ में 'पाण्डु' और 'कुंण्डलगिरि' का दो अलग-अलग नामों से विभिन्न स्थानों पर उल्लेख किया है । अतः यह सूर्य की तरह स्पष्ट है कि ये दोनों स्थान भिन्न-भिन्न ही उन्हें इष्ट थे । अतः पाण्डुगिरि को कुण्डलगिरि मानने की बात स्वयं निरस्त हो जाती है। इस पर हमारे सहयोगी ने अन्यत्र विचार किया है। फिर भी यदि किसी अन्य क्षेत्र को कुंडलगिरि प्रमाणित करने के इनसे अधिक कोई स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं, तो विद्वज्जन उसको परीक्षा कर समुचित मत ग्रहण कर सकते हैं। __ प्रस्तुत प्रमाणों से "कुण्डलगिरि कोई निर्वाण क्षेत्र है" यह सिद्ध हो गया । प्रश्न अब यह है कि वह स्थान कहाँ है ? कुण्डलगिरि मङ्गलाष्टक में आता है । वह मनुष्य लोक के बाहर कुण्डलगिरि द्वीप में है। वह तो निर्वाण भूमि नहीं हो सकता । अन्य चार स्थानों के विषय में मेरे सहयोगी पं० फूलचंद्र जी ने पिछले लेख में विचार किया ही है । इनमें दमोह जिले का कुंडलपुर ही यहां अभीष्ट है । यह स्थान श्री श्रोधर स्वामी की निर्वाण भूमि है, ऐसा मेरा वर्षों से मत चला आ रहा है । राजगृह को पंच पहाड़ियों में कुण्डलगिरि होने की आशंका उक्त प्रमाणों में निरस्त हो जाती है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5