Book Title: Shreedhar Swami ki Nirvan Bhumi Kundalpur
Author(s): Jaganmohanlal Jain
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 2
________________ ३७६ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड ग्रन्थ में उक्त उल्लेख पढ़ने पर मेरा ध्यान सर्वप्रथम दमोह (मध्यप्रदेश) के निकट स्थित कुण्डलपुर ग्राम पर गया । यह पर्वत कुण्डलाकार (गोल) है, अतः कुण्डलगिरि हो सकता है। अन्यत्र ऐसा पर्वत नहीं है और न ऐसे ग्राम की ही प्रसिद्धि है । मूलनायक विशाल प्रतिमा भगवान् महावीर की है, ऐसी प्रसिद्धि है । तथापि चिह के स्थान पर इसमें कोई चिह्न नहीं है। अब यह प्रतिमा आदिनाथ की मानी जाती है और बड़े बाबा के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्थान श्री १००८ श्रीधर केवली की निर्वाण-भूमि है, यह नीचे लिखे प्रमाणों से स्पष्ट है : १. पूज्यपादकृत दशभक्ति में निर्वाण भक्ति के प्रकरण में निर्वाण क्षेत्रों के नामों की गणना है। ऋष्याद्रिमेढ़क-कुण्डल-द्रोणीमति-बिंध्य-पोदनपुर आदि अनेक निर्वाण भूमियों के नाम है। इनमें पंच पहाड़ियों में सभी के नाम नहीं हैं। केवल उनके नाम हैं जो सिद्ध स्थान हैं। वे है वैभार-विपुलाचल-ऋष्याद्रिक । कुण्डल शब्द के साथ मेढक शब्द है । इन दोनों के पूर्व प्रबल शब्द और उसके बाद ही पंचपहाड़ियों में उसका नाम है। इससे । जिस प्रकार मेढ़क मेढ़गिरि के लिए अलग से आया है, इसी प्रकार कुण्डल शब्द कुण्डलगिरि के लिये अलग से आया है । फलतः मेढ़गिरि की तरह कुण्डलगिरि स्वतन्त्र निर्वाण भूमि है। अन्यथा निर्वाण भूमि में उसका उल्लेख न पाया जाता। निर्वाण भूमियों में उसका नाम आना उस स्थान को सिद्ध-भूमि मानने के लिये पर्याप्त प्रमाण है। निर्वाण भक्ति में इसके पूर्व के श्लोकों में तीर्थंकरों की निर्वाण भूमियों के नाम देकर आठवें श्लोक के पूर्व निम्न उत्थानिका भी है : "इदानीं तीर्थंकरेभ्योऽन्येषां निर्वाणभूमिम् स्तोतुमाह" आठवें श्लोक में शत्रुञ्जय तुङ्गीगिरि का नामोल्लेख है-दसवें श्लोक में भी कुछ नाम है। इन सभी श्लोकों का अर्थ निम्न होता है : द्रोणीमति (द्रोणगिरि), प्रबलकुण्डल, प्रबलमेढ़क ये दोनों, वैभार पर्वत का तलभाग, सिद्धकूट, ऋष्याद्रिक, विपुलाद्रि, बलाहक, विध्य, पोदनपुर, वृषदीपक, सह्याचल, हिमवत्, लम्बायमान गजपंथ आदि पवित्र पृथ्वियों में जो साधुजन कर्मनाश कर मुक्ति पधारे, वे स्थान जगत् में प्रसिद्ध हुए। आगे के श्लोकों में इन स्थानों की पवित्रता का वर्णन कर स्तुति की है। प्रस्तुत प्रसङ्ग में कुण्डल शब्द पर विचार करना है । टोका में कुण्डल और मेढ़क की "प्रबल कुण्डले प्रबल मेढ़के च" ऐसा लिखा गया है जिसका अर्थ स्वतन्त्रता से श्रेष्ठ कुण्डलगिरि और श्रेष्ठ मेढ़गिरि होता है । पांच पहाड़ियों में केवल ३ नाम आए हैं । ऋष्याद्रिक को टीकाकार ने श्रमणगिरि लिखा है। पांच पहाड़ियों के नाम निम्न है : (१) रत्नागिरि (ऋषिगिरि), (२) वैभारगिरि (३) विपुलाचल (४) बलाहक (५) पाण्डु । बौद्ध ग्रन्थों में पांच पहाड़ियों के नाम इस प्रकार हैं-(१) वेपुल्स (२) वैभार (छिन्न श्रमणगिरि) (३) पाण्डव (४) इसगिरि (उदयगिरि, ऋषिगिरि) और (५) गिज्झकूट । धवला टीका में इनके निम्न नाम हैं-(१) ऋषिगिरि (२) वैभार (३) विपुलगिरि (४) छिन्न (बलाहक) (५) पांडु । इन तीनों नामावलियों से सिद्ध है कि पांचों पहाड़ियों में कुण्डलगिरि किसी का भी नाम नहीं था और न आज भी है । तब पञ्च पहाड़ियों में उसकी कल्पना का कोई आधार नहीं रह जाता। फलतः कुण्डलगिरि स्वतन्त्र निर्वाण भूमि है, यह सिद्ध होता है। नीचे लिखा प्राकृत निर्वाणभक्ति का उल्लेख भी इसे सिद्ध करता है : अग्गल देवं वंदमि वरणधरे निवण कुण्डली वंदे। पासं सिरपुरि वंदमि होलागिरि संख देवम्मि । वरनगर में अगलदेव (आदिनाथ) की तथा निर्वाण कुण्डली क्षेत्र की, श्रीपुर में श्री पाश्वनाथ को तथा होलागिरि शंखद्वीप में श्री पार्श्वनाथ की वंदना करता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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