Book Title: Shravak Dharm Author(s): Indra Chandra Shastri Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 8
________________ -0--0--0--0---0-0--0-0 ५०६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय दुर्भावना दो प्रकार की है (१) स्वार्थसिद्धि-मूलक अर्थात् अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये दूसरे को गलत बात बताना. (२) द्वेषमूलक-दूसरे को हानि पहुँचाने की भावना. इस व्रत का मुख्य सम्बन्ध भाषण के साथ है; किन्तु दुर्भावना से प्रेरित मानसिक चिन्तन तथा कायिक व्यापार भी इसमें आ जाते हैं. सत्य की श्रेष्ठता के विषय में उपनिषद् में कहा है-'सत्यमेव जयते नानृतं' अर्थात् सत्य की जीत होती है, झूठ की नहीं. दूसरा वाक्य जैन-शास्त्रों में मिलता है-'सच्चं लोगम्मि सारभूयं'-अर्थात् सत्य ही दुनिया में सारभूत है. इन दोनों में भेद बताते हुए काका कालेलकर ने लिखा है कि प्रथम वाक्य में हिंसा मिली हुई है, जीत में हारने वाले की हिंसा छिपी हुई है. अहिंसक मार्ग तो वह है जहाँ शत्रु और मित्र दोनों की जीत होती है, हार किसी की नहीं होती. दूसरा वाक्य यह बताता है कि सत्य ही विश्व का सार है, उसी पर दुनिया टिकी हुई है. जिस प्रकार गन्ने का मूल्य उसके सार अर्थात रस पर आश्रित है इसी प्रकार जीवन का मूल्य सत्य पर आधारित है. यहाँ जीत और हार का प्रश्न नहीं है. उपनिषदों में सत्य को ईश्वर का रूप बताया गया है और उसे लक्ष्य में रख कर अभय अर्थात् अहिंसा का उपदेश दिया गया है. जैन-धर्म आचारप्रधान है अतः अहिंसा को सामने रख कर उस पर सत्य की प्रतिष्ठा करता है. उपनिषदों में विश्व के मूलतत्त्वों की खोज अर्थात् दर्शनशास्त्र की प्रधानता है. अतः वहां सत्य को आधार बनाकर अहिंसा का संदेश दिया गया है. इसी का दूसरा नाम एकता का दर्शन या अभेद का साक्षात्कार है, वहाँ भेदबुद्धि ही हिंसा है. श्रावक अपने सत्य-व्रत में स्थूल-मृषावाद का त्याग करता है. उन दिनों स्थूल-मृषावाद के जो रूप थे, यहाँ उनकी गणना की गई है : १. कन्यालीक-वैवाहिक संबन्ध के समय कन्या के विषय में झूठी बातें कहना. उसकी आयु, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के विषय में दूसरे को धोखा देना. इस असत्य के परिणाम स्वरूप वर तथा कन्यापक्ष में ऐसी कटुता आजाती है कि कन्या का जीवन दूभर हो जाता है. २. गवालीक-गाय, भैंस आदि पशुओं का लेन-देन करते समय झूठ बोलना. वर्तमान समय को लक्ष्य में रखकर कहा जाय तो क्रय-विक्रय संबन्धी सारा झूठ इसमें आजाता है. ३. भूम्यलीक-भूमि के संबन्ध में झूठ बोलना. ४. स्थापनमृषा-किसी की धरोहर या गिरवी रखी हुई वस्तु के लिये झूठ बोलना. १. कूटसाक्षी-न्यायालय आदि में झूठी साक्षी देना. उपरोक्त पांचों बातें व्यवहारशुद्धि से संबन्ध रखती हैं और स्वस्थ समाज के लिये आवश्यक है. इस व्रत के पाँच अति चार निम्नलिखित हैं: १. सहसाभ्याख्यान-विना विचारे किसी पर झूठा आरोप लगाना. २. रहस्याभ्याख्यान-राग में आकर विनोद के लिये किसी पति-पत्नी अथवा अन्य स्नेहियों को अलग कर देना, किंवा किसी के सामने दूसरे पर दोषारोपण करना. ३. स्वदारमन्त्रभेद-आपस में प्रीति टूट जाय, इस ख्याल ने एक-दूसरे की चुगली खाना या किसी की गुप्त बात को प्रकट कर देना. ५. मिथ्योपदेश–सच्चा-झूठा समझा कर किसी को उल्टे रास्ते डालना. ५. कूट लेखक्रिया-मोहर, हस्ताक्षर आदि द्वारा झूठी लिखा-पढ़ी करना तथा खोटा सिक्का चलाना आदि. तत्त्वार्थसूत्र में सहसाभ्याख्यान के स्थान पर न्यासापहार है, इसका अर्थ है किसी की धरोहर रख कर इंकार कर जाना. Jain EdusPage Navigation
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