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डॉ० इन्द्रचन्द्र शास्त्री एम० ए० पी-एच० डी०, शास्त्राचार्य, वेदान्तवारिधि, न्यायतीर्थ श्रावकधर्म
जैनधर्म के अनुसार साधना का उद्देश्य किसी बाह्य वस्तु की प्राप्ति करना नहीं, वरन् बाह्य प्रभाव के कारण आत्मा का जो शुद्ध स्वरूप छिपा हुआ है, उसे प्रकट करना है. जब आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है तो वही परमात्मा बन जाता है. परमात्मपद की प्राप्ति ही जैन-साधना का लक्ष्य है. इसकी प्राप्ति के लिये जीव अपने विकारों को दूर करता हुआ क्रमशः आगे बढ़ता है. जैनसंघ में गृहत्यागी और गृहस्थ दोनों वर्गों को स्थान दिया गया है. अतएव स्वाभाविक है कि साधकों के स्तरभेद के कारण उनकी साधना के स्तर में भी भिन्नता हो. यही कारण है कि जैनशास्त्रों में मुनिधर्म और गृहस्थ-धर्म का पृथक्पृथक् निरूपण किया गया है. प्रस्तुत निबंध में गृहस्थधर्मसाधना पर ही प्रकाश डाला जाएगा. गृहस्थधर्म को संयमासंयम, देशविरति, देशचारित्र आदि भी कहते हैं. यह सर्वविदित है कि श्रमण-परम्परा में त्याग पर अधिक बल दिया गया है. यहां विकास का अर्थ आन्तरिक समृद्धि है और यदि बाह्य सुख-सामग्री उसमें बाधक है तो उसे भी हेय बताया गया है. फिर भी जैन-परम्परा ने आध्यात्मिक विकास की मध्यम श्रेणी के रूप में एक ऐसी भूमिका को स्वीकार किया है जहाँ त्याग और भोग का सुन्दर समन्वय है. बौद्धसंघ में केवल भिक्षु ही सम्मिलित किये जाते हैं, गृहस्थों के लिये स्थान नहीं है. किन्तु जैनसंघ में दोनों सम्मिलित हैं. जहाँ तक मुनि की चर्या का प्रश्न है जैन-परम्परा ने उसे अत्यन्त कठोर तथा उच्चस्तर पर रखा है. बौद्ध-भिक्षु अपनी चर्या में रहता हुआ भी अनेक प्रवृत्तियों में भाग ले सकता है किन्तु जैन मुनि ऐसा नहीं कर सकता. परिणामस्वरूप जहाँ तप और त्याग की आध्यात्मिक ज्योति को प्रज्वलित रखना साधुसंस्था का कार्य है, संघ के भरण-पोषण एवं बाह्य सुविधाओं का ध्यान रखना श्रावक-संस्था का कार्य है.. बौद्धधर्म में भी साधना-मार्ग के रूप में श्रावक-यान का निर्देश मिलता है. वहां श्रावक शब्द का अर्थ है, वह साधक जो दूसरों से सुनकर ज्ञान प्राप्त करता है और साधना के पथ पर अग्रसर होता हुआ निर्वाण अवस्था में पहुंचता है. इसकी तुलना में वहाँ दो यान और हैं. प्रत्येक बुद्धयान और बोधिसत्वयान. प्रत्येक बुद्ध अपने आप ज्ञान प्राप्त करता है और बोधिसत्व अपने कल्याण के साथ दूसरों के कल्याण में भी प्रवृत्त होता है. इस प्रकार बोधिसत्व और शेष दो में लक्ष्य का भेद है. जैन परम्परा में जो स्थान तीर्थंकर का है बौद्ध-परम्परा में वही बुद्ध का है. श्रावक और प्रत्येक बुद्ध में ज्ञानप्राप्ति की दृष्टि से भेद है. जहाँ तक उनके शील या चरित्र का प्रश्न है कोई भेद नहीं है किन्तु जैन परम्परा में श्रावक और मुनि में मुख्य भेद चरित्र के स्तर का है. जैन-साहित्य में श्रावक शब्द के दो अर्थ मिलते हैं—पहला, 'थि' धातु से बना है, जिसका अर्थ है सुनना. जो शास्त्रों का श्रवण करता है और तदनुसार चलने का यथाशक्ति प्रयत्न करता है वह श्रावक है. श्रावक शब्द से साधारणतया यही अर्थ ग्रहण किया जाता है. प्रतीत होता है जैन परम्परा में श्रावकों द्वारा स्वयं शास्त्राध्ययन की परिपाटी नहीं
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५०० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय रही. यत्र तत्र साधुओं के अध्ययन और उन्हें पढ़ाने वाले वाचनाचार्य का वर्णन मिलता है. अध्ययन करने वाले साधुओं की योग्यता तथा आवश्यक तपोनुष्ठान का विधान भी किया गया है किन्तु श्रावकों का निर्देश शास्त्राध्ययन के सम्बन्ध में कहीं नहीं मिलता. इस का दूसरा अर्थ 'श्रापाके' धातु के आधार पर किया जाता है. इस धातु से संस्कृत रूप 'श्रापक' बनता है जिसका प्राकृत में 'शाक्य' हो सकता है किन्तु संस्कृत में 'श्रावक' शब्द के साथ इसकी संगति नहीं बैठती. इन शब्द का आशय है वह व्यक्ति, जो भोजन पकाता है, इसके विपरीत साधु भिक्षा पर निर्वाह करते हैं, पकाते नहीं. श्रावक के लिये बारह व्रतों का विधान है. उनमें से प्रथम पांच अणुव्रत या शीलव्रत कहे जाते हैं. अगुव्रत का अर्थ है छोटे व्रत. साधु हिंसा आदि का पूर्ण परित्याग करता है अतः उसके व्रत महाव्रत कहे जाते हैं. श्रावक उनका पालन मर्यादित रूप में करता है अत: उसके व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं. शील का अर्थ है आचार, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच चरित्र या आचार की आधार शिला है. इसीलिए इनको शील कहा जाता है. बौद्ध साहित्य में भी इनके लिये यही नाम मिलता है. योग दर्शन में इन्हें यम कहा गया है और अष्टांग योग की आधार शिला माना गया है और कहा गया है कि ये ऐसे व्रत हैं जो सार्वभौम हैं-व्यक्ति देश-काल तथा परिस्थिति की मर्यादा से परे हैं अर्थात् धर्माधर्म या कर्त्तव्या-कर्तव्य का निरूपण करते समय अन्य नियमों की जांच अहिंसा आदि के आधार पर करना चाहिए किन्तु इन्हें किसी दूसरे के लिये गौण नहीं बनाया जा सकता. हिंसा प्रत्येक अवस्था में पाप है उसके लिये कोई अपवाद नहीं हैं. कोई व्य वित हो या कैसी ही परिस्थिति हो, हिंसा पाप है, अहिंसा धर्म है. सत्य आदि के लिये भी यही बात है. किन्तु इनका पूर्णतया पालन वहीं हो सकता है जहाँ सब प्रवृत्तियां बन्द हो जाती हैं. हमारी प्रत्येक हलचल में सूक्ष्म या स्थूल हिंसा होती रहती है अतः साधक के लिये विधान है कि उस लक्ष्य पर दृष्टि रखकर यथाशक्ति आगे बढ़ता चला जाय. साधु औरश्र विक इसी प्रगति की दो कक्षाएं हैं. श्रावक के शेष सात व्रतों को शिक्षा-व्रत कहा गया है वे जीवन में अनुशासन लाते हैं. इनमें से प्रथम तीन बाह्य अनुशासन के लिये हैं और हमारी व्यावसायिक हलचल, दैनन्दिन रहन-सहन एवं शरीर-संचालन पर नियंत्रण करते हैं और शेष चार आंतरिक शुद्धि के लिये हैं. इन दोनों श्रेणियों में विभाजन करने के लिये प्रथम तीन को गुण व्रत और शेष चार को शिक्षा व्रत भी कहा जाता है. इन बारह व्रतों के अतिरिक्त पूर्व भूमिका के रूप में सम्यक्त्व-व्रत है जहां साधक की दृष्टि अन्तर्मुखी बन जाती है और वह आन्तरिक विकास को अधिक महत्त्व देने लगता है, इसका निरूपण पहले किया जा चुका है. बारह व्रतों का अनुष्ठान करता हुआ श्रावक आध्यात्मिक शक्ति का संचय करता जाता है. उत्साह बढ़ने पर वह घर का भार पुत्र को सौंप कर धर्म-स्थान में पहुंच जाता है और सारा समय तपस्या और आत्म-चिन्तन में बिताने लगता है. उस समय वह ग्यारह प्रतिमायें स्वीकार करता है और उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ अपनी चर्या को मुनि के समान बना लेता है. जब वह यह देखता कि मन में उत्साह होने पर भी शरीर कृश हो गया है और बल क्षीण होता जा रहा है तो नहीं चाहता कि शारीरिक दुर्बलता मन को प्रभावित करे और आत्म-चिन्तन के स्थान पर शारीरिक चिन्तायें होने लगें. इस विचार के साथ वह शरीर का ममत्व छोड़ देता है. आहार का परित्याग करके निरन्तर आत्म-चिन्तन में लीन रहता है. जहाँ वह जीवन की इच्छा का परित्याग कर देता है, वहाँ यह भी नहीं चाहता कि मृत्यु शीघ्र आ जाय. जीवन और मृत्यु, निन्दा और स्तुति, सुख और दुःख सबके प्रति समभाव रखता हुआ समय आने पर शान्तचित्त से स्थूल शरीर को छोड़ देता है. श्रावक की इस दिनचर्या का वर्णन उपासकदशांग के प्रथम आनन्द नामक अध्ययन में है. अब हम संक्षेप में इन व्रतों का निरूपण करेंगे. प्रत्येक व्रत का प्रतिपादन दो भागों में विभक्त है. पहला भाग विधान के रूप में है. जहां साधक अपनी व्यवहार मर्यादा का निश्चय करता है उस मर्यादा को संकुचित करना उसकी अपनी इच्छा एवं उत्साह पर निर्भर है किन्तु मर्यादा से आगे बढ़ने पर व्रत टूट जाता है. दूसरे भाग में उन दोषों का प्रतिपादन किया गया है जिनकी संभावना बनी रहती है और कहा गया है कि श्रावक को उन्हें जानना चाहिए किन्तु आचरण न करना चाहिए. श्रावक के लिये दिनचर्या के रूप में प्रतिक्रमण का विधान है. उसमें वह प्रतिदिन इन व्रतों एवं संभावित दोषों को दोहराता है किसी
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डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री : श्रावकधर्म : १०१
प्रकार का दोष ध्यान में आने पर प्रायश्चित्त करता है और भविष्य में उनके निर्दोष पालन की घोषणा करता है. इन सम्भावित दोषों को अतिचार कहा गया है. जैन शास्त्रों में व्रत के अतिक्रमण की चार कोटियां बताई गई हैं : १. अतिक्रम-व्रत को उल्लंघन करने का मन में ज्ञात या अज्ञात रूप से विचार आना. २. व्यतिक्रम-उल्लंघन करने के लिये प्रवृत्ति. ३. अतिचार-व्रत का आंशिक रूप में उल्लंघन. ४, अनाचार-व्रत का पूर्णतया टूट जाना. अतिचार की सीमा वहीं तक है जब कोई दोष अनजान में लग जाता है, जान-बूझ कर व्रतभंग करने पर अनाचार हो जाता है.
हिसा-त्रत अहिंसा जैन-परम्परा का मूल है. जैनधर्म और दर्शन का समस्त विकास इसी मूल तत्त्व को लेकर हुआ है. आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने घोषणा की है कि जो अरिहन्त भूतकाल में हो चुके हैं, जो वर्तमान में हैं तथा जो भविष्य में होंगे उन सबका एक ही कथन है, एक ही उपदेश, एक ही प्रतिपादन है तथा एक ही उद्घोष है कि विश्व में जितने प्राणि, भूत, जीव या सत्त्व हैं किसी को नहीं मारना चाहिए, किसी को नहीं सताना चाहिए. किसी को कष्ट या पीड़ा नहीं देनी चाहिए. जीवन के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन समता के आधार पर करते हुए उन्होंने कहा- जब तुम किसी को मारना, सताना या पीड़ा देना चाहते हो तो उसके स्थान पर अपने को रखकर सोचो, जिस प्रकार यदि कोई तुम्हें मारे या कष्ट देवे तो अच्छा नहीं लगता. इसी सूत्र में भगवान् ने फिर कहा है-अरे मानव, अपने आपसे युद्ध कर, बाह्य युद्धों से कोई लाभ नहीं. इस प्रकार भगवान् महावीर ने अहिंसा के दो रूप उपस्थित किये. एक बाह्य रूप जिसका अर्थ है किसी प्राणी को कष्ट न देना. दूसरा आभ्यन्तर रूप है जिसका अर्थ है किसी के प्रति दुर्भावना न रखना, किसी का बुरा न सोचना. दशवकालिक सूत्र में धर्म को उत्कृष्ट मंगल बताया है. इसका अर्थ है जो आदि, मध्य तथा अंत, तीनों अवस्थाओं में मंगल रूप हो वही धर्म है उसके तीन अंग बताए गए हैं—१. अहिंसा, २. संयम, ३. तप. वास्तव में देखा जाय तो संयम और तप अहिंसा के दो पहलू हैं. संयम का सम्बन्ध बाह्य प्रवृत्तियों के साथ है और तप का आन्तरिक मलिनताओं या कुसंस्कारों के साथ. उपर्युक्त अणुव्रतों तथा शिक्षाव्रतों का विभाजन इन्हीं दो रूपों को सामने रखकर किया गया है. संयम और तप की पूर्णता के रूप में ही मुनियों के लिये एक ओर महाव्रत तथा समिति, गुप्ति आदि उनकी सहायक क्रियाओं का विधान है और दूसरी ओर बाह्य तथा आभ्यन्तर अनेक प्रकार की तपस्याओं का विधान है. पांच महावतों में भी वस्तुतः देखा जाय तो सत्य और अस्तेय, बाह्य अहिंसा अर्थात् व्यवहार के साथ सम्बन्ध रखते हैं, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह आन्तरिक अहिंसा अर्थात् विचार के साथ सम्बन्ध रखते हैं. व्यास ने पातञ्जल योग के भाष्य में कहा है...."अहिंसा भूतानामनभिद्रोहः." द्रोह का अर्थ है ईर्ष्या या द्वेष बुद्धि. इसमें मुख्यतया विचारपक्ष को सामने रक्खा गया है, जैन-दर्शन विचार और व्यवहार दोनों पर बल देता है. जैन-दर्शन का सर्वस्व स्याद्वाद है. वह विचारों की अहिंसा है. इसका अर्थ है व्यक्ति अपने विचारों को जितना महत्त्व देता है दूसरों के विचारों को भी उतना दे. गलत सिद्ध होने पर अपने विचारों को छोड़ने पर तैयार रहे और वास्तविक सिद्ध होने पर दूसरे के विचारों का स्वागत करे. जैन-दर्शन का कथन है कि व्यक्ति अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार विभिन्न दृष्टिकोणों को उपस्थित करते हैं. वे दृष्णिकोण मिथ्या नहीं होते किन्तु सापेक्ष होते हैं. परिस्थिति तथा समय के अनुसार उनमें से किसी एक का चुनाव किया जाता है. इस चुनाव को द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव इन शब्दों द्वारा प्रकट किया गया है.
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२०२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
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उमास्वाति ने अपने 'तत्त्वार्थसूत्र' में हिंसा की व्याख्या करते हुए कहा है-'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणम् हिसा !" इस व्याख्या के दो भाग हैं, पहला भाग है-'प्रमत्तयोगात्'. योग का अर्थ है मन, वचन और काया की प्रवृत्ति, प्रमत्त का अर्थ है प्रमाद से युक्त. वे पांच हैं : १. मद्य-अर्थात् ऐसी वस्तुएं जिनसे मनुष्य की विवेक-शक्ति कुण्ठित हो जाती है. २. विषय-रूप, रस, गन्ध आदि इन्द्रियों के विषय, जिनके आकर्षण में पड़ कर मनुष्य अपने हिताहित को भूल जाता है. ३. कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ आदि मनोवेग, जो मनुष्य को पागल बना देते हैं. ४. निद्रा-आलस्य या अकर्मण्यता. १. विकथा-स्त्रियों के सौन्दर्य, देश-विदेश की घटनाएं, भोजन सम्बन्धी स्वाद तथा राजकीय व्यवस्था आदि विषयों को लेकर व्यर्थ की चर्चायें करते रहना. प्रमाद की अवस्था में मन, वचन और शरीर की ऐसी प्रवृत्ति करना जिससे दूसरे के प्राण पर आघात पहुंचे-हिसा है. इसका अर्थ है यदि हितबुद्धि से प्रेरित होकर कोई कार्य किया जाता है और उससे दूसरे को कष्ट पहुंचता है तो वह हिंसा नहीं है. उपरोक्त व्याख्या में प्राणशब्द अत्यन्त व्यापक है. जैन-शास्त्रों में प्राण के दस भेद हैं-पांच इन्द्रियां, मन, वचन, काया, श्वासोच्छ्वास और आयु. इनका व्यपरोपण दो प्रकार से होता है. आघात द्वारा तथा प्रतिबन्ध द्वारा. दूसरे को ऐसी चोट पहुंचाना जिससे दिखना या सुनना बन्द हो जाय, आघात है. दूसरे को देखने या सुनने से रोकना, उसकी स्वतन्त्र वृत्तियों में बाधा डालना प्रतिबन्ध है. दूसरे के स्वतन्त्र चिन्तन, भाषण अथवा यातायात में रुकावट डालना भी प्रतिबन्ध के अन्तर्गत है और वह हिंसा है. दूसरे की खुली हवा को रोकना, उसे दूषित करना, श्वासोच्छ्वास पर प्रतिबन्ध है. यहाँ यह प्रश्न होता है कि एक नागरिक अपनी स्वतन्त्र प्रवृत्तियों के कारण दूसरे नागरिक के रहन-सहन एवं सुखसुविधा में बाधा डालता है, उसके वैयक्तिक जीवन में हस्तक्षेप करता है, चोरी, डकैती तथा अन्य अपराधों द्वारा शान्ति भंग करता है, क्या उस पर नियन्त्रण करना आवश्यक नहीं है ? यहीं साधु और श्रावक की चर्या में अन्तर हो जाता है. साधु किसी पर हिंसात्मक नियंत्रण नहीं करता. वह अपराधी को भी उसके कल्याण की बुद्धि से उपदेश द्वारा समझाता है, उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं देना चाहता. इसके विपरीत श्रावक को इस बात की छूट रहती है वह अपराधी को दण्ड दे सकता है. नागरिक जीवन में बाधा डालने वाले पर हिंसात्मक नियन्त्रण रख सकता है. साधु और श्रावक की अहिंसा में एक बात का अन्तर और है-जैन-धर्म के अनुसार पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु तथा वनस्पतियों में भी जीव हैं और उन्हें स्थावर कहा गया है और चलने फिरने वाले जीवों को त्रस कहा गया है. साधु अपने लिये, भोजन बनाना, पकाना, मकान बनाना, आदि कोई प्रवृत्ति नहीं करता, वह भिक्षा पर निर्वाह करता है, इसके विपरीत श्रावक अपनी आवश्यकता-पूर्ति के लिये मर्यादित रूप में प्रवृत्तियां करता है और उनमें पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि स्थावर जीवों की हिंसा होती ही रहती है. उस सूक्ष्म हिंसा का उससे त्याग नहीं होता. वह केवल स्थूल अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करता है. इस प्रकार श्रावक की चर्या में दो छूटें हैं. पहली अपराधी को दण्ड देने की और दूसरी सूक्ष्म हिंसा की. इसी आधार पर श्रावक के व्रतों को सागारी अर्थात् छूट वाले कहा जाता है. इसके विपरीत साधु के व्रतों को अनागार कहा जाता है. जीवनव्यवहार के सम्बन्ध में दो दृष्टिकोण मिलते हैं. पहला दृष्टिकोण मनुस्मृति में आया है जहां कहा गया है'जीवो जीवस्य जीवनम्'. एक जीव दूसरे जीव का जीवन है अर्थात् भोजन है. इसमें यह प्रकट किया गया है कि प्राणियों का जीवन परस्पर हिंसा पर टिका हुआ है. आर्थिक क्षेत्र में इसी हिसा को शोषण कहा जाता है और राजनीतिक क्षेत्र में अत्याचार. जब उसका व्यवहार चोर, डाकू, आदि करते हैं तो उसे अपराध कहा जाता है. दूसरा
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डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री : श्रवकधर्म : १०३
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दृट्टिकोण परस्पर सहयोग का है. एक व्यक्ति को भोजन की आवश्यकता है और दूसरे को वस्त्र की. भोजन तैयार करने वाला अपने भोजन का कुछ अंश वस्त्र तैयार करने वाले को दे देता है और उससे वस्त्र प्राप्त करता है. इस प्रकार विनिमय के द्वारा बिना किसी हिंसा के दोनों की आवश्यकता पूर्ण हो जाती है. श्रावक का जीवन परस्पर सहयोग के इसी सिद्धांत पर आधारित है.
करण और योग पहले बताया जा चुका है कि मनुष्य की प्रवृत्तियां साधना की अपेक्षा से तीन प्रकार की होती हैं.-.-मानसिक, वाचिक, और कायिक. इन्हें जन-परम्परा में योग कहा गया है. इसी प्रकार क्रिया की अपेक्षा से भी उसके तीन प्रकार हैंस्वयं करना, दूसरे से कराना और करने वाले का अनुमोदन करना. इन्हें करण कहा गया है.
___ अहिंसा का विध्यात्मक रूप अहिंसा को जीवन में उतारने के लिये मैत्री-भावना का विधान किया गया है. श्रावक प्रतिदिन घोषणा करता है-मैं सब जीवों को क्षमा प्रदान करता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा प्रदान करें. मेरी सबसे मित्रता है, किसीसे वैर नहीं है. इस घोषणा में श्रावक सर्वप्रथम स्वयं क्षमा प्रदान करता है और कहता है कि मुझसे किसी को डरने की आवश्यकता नहीं है, मैं सबको अभय प्रदान करता हूँ. दूसरे वाक्य द्वारा वह अन्य प्राणियों से क्षमा-याचना करता है और स्वयं निर्भय होना चाहता है. वह ऐसे जीवन की कामना करता है जहाँ वह न शोषक बने और न शोषित, न भयोत्पादक बने और न भयभीत, न त्रासक बने और न त्रस्त, न उत्पीड़क बने न पीड़ित. तीसरे चरण में वह सबसे मित्रता की घोषणा करता है. अर्थात् सबको समता की दृष्टि से देखता है. मित्रता का मूल आधार है प्रतिदान की आशा न रखते हुए दूसरे को अधिक से अधिक प्रदान करने की भावना. एक मित्र को दूसरे मित्र की सुख-सुविधा व आवश्यकता का जितना ध्यान रहता है, उतना अपना नहीं. इसके विपरीत जब अपनी सुख-सुविधा के लिये दूसरे का हक छीनने की भावना आ जाती है, तभी शत्रुता का मिश्रण होने लगता है. मित्रता की घोषणा द्वारा श्रावक अन्य सब प्राणियों का हितैषी एवं रक्षक बनने की प्रतिज्ञा करता है. चौथा चरण है-मेरा किसी से वैर नहीं है. वह कहता है-ईर्ष्या, द्वेष, मनोमालिन्य आदि शत्रुता के जितने कारण हैं, मैं उन सब को धो चुका हूँ और शुद्ध एवं पवित्र हृदय को लेकर विश्व के सामने उपस्थित होता हूं. जो व्यक्ति कम से कम वर्ष में एक बार इस प्रकार घोषणा नहीं करता, उसे अपने आप को जैन कहने का अधिकार नहीं है. यदि प्रत्येक व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र इस घोषणा को अपना लें तो विश्व की अनेक समस्याएं सुलझ जायें. विभिन्न व्यक्तियों की दृष्टि से मैत्री के चार रूप बताये गये हैं. इन्हीं को बौद्ध धर्म में ब्रह्मविहार के रूप में कहा गया है और योग-दर्शन में चित्त को प्रसन्न एवं निर्मल बनाने के रूप में. १. मैत्री- समस्त प्राणियों के साथ मित्रता तथा उनके सुख की कामना. योग-दर्शन में सुखसम्पन्न व्यक्तियों के प्रति मित्रता का निर्देश किया गया है. जिस प्रकार हमें मित्र के सुख-सम्पत्ति तथा स्वास्थ्य से प्रसन्नता होती है इसी प्रकार सबकी उन्नति पर प्रसन्न होना सर्वमैत्री है. इस भावना द्वारा व्यक्ति ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करता है, अर्थात् दूसरों की उन्नति से उसके मन में दुःख नहीं होता प्रत्युत प्रसन्नता होती है. दूसरी ओर वह संकुचित स्वार्थ से ऊपर उठने लगता है और वैयक्तिक उन्नति के स्थान पर सबकी उन्नति चाहने लगता है. २. करुणा- दुखी को देखकर मन में सहानुभूति तथा संवेदना होना, उसके दुःख को दूर करने के लिये प्रयत्नशील होना. प्रायः यह देखा गया है कि दूसरे को कष्ट या संकट में देख कर सर्वसाधारण उससे घृणा करने लगता है. सहयोगी तथा मित्रजन उससे कतराने लगते हैं. इतना ही नहीं, उसकी विवशताओं से लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं. यह एक प्रकार की हिंसा-वृत्ति है. अहिंसा के साधक को दुखी का दु:ख दूर करने तथा उसके कष्ट में हिस्सा बंटाने की भावना रखनी चाहिए.
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५०४ : मुनि श्रीहजारील स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
३. मुदिता--जो व्यक्ति विद्या, त्याग अथवा किसी अन्य गुण के कारण आगे बढ़ा हुआ है उसे देख कर प्रायः हमारे मन में असूया उत्पन्न होती है. अर्थात् हम उसमें दोष निकालने का प्रयत्न करते हैं. यदि वह त्यागी है तो उसे ढोंगी कहने लगते हैं, यदि विद्वान है तो रटू. इसी प्रकार समाज-सेवक, नेता, दानी आदि प्रत्येक में कोई न कोई दोष निकालने की चेष्टा की जाती है. यह एक प्रकार की असहिष्णुता है और छिपी हुई हिंसा का बाह्य रूप है. इसे दूर करने के लिए गुणी को देखकर प्रसन्न होने की आदत होनी चाहिए. उसे देखकर झुक जाना और उसके गुणों को अपने में लाना मुदिता है. दोष और गुण प्रत्येक व्यक्ति में रहते हैं, हमारा ध्यान गुणों की ओर जाना चाहिए, दोषों की ओर नहीं. ४. उपेक्षा-जो व्यक्ति हमारे प्रतिकुल चलता है, हमसे शत्रुता करता है, हमें हानि पहुँचाने की चेष्टा करता है, उसके प्रति भी द्वेष न कर के तटस्थ वृत्ति रखना उपेक्षा है. इन चार भावनाओं से क्रमशः ईर्ष्या, घृणा, असूया और द्वेष पर विजय प्राप्त होती है. ये सब आत्मा के मल हैं और उसे अशान्त बनाये रखते हैं. अहिंसा और कायरता अहिंसा पर प्रायः आक्षेप किया जाता है कि यह कायरता है. शत्रु के सामने आने पर जो व्यक्ति संघर्ष की हिम्मत नहीं रखता, वही अहिंसा को अपनाता है; किन्तु यह धारणा ठीक नहीं है. कायर वह होता है जो मन में प्रतिकार की भावना होने पर भी प्रत्याक्रमण करने से डरता है. ऐसे व्यक्ति का आक्रमण न करना या शत्रु के सामने झुक जाना अहिंसा नहीं है, वह तो आक्रमण से भी बड़ी हिंसा है. महात्मा गांधी का कथन है कि आक्रमक या क्रूर व्यक्ति विचारों में परिवर्तन होने पर अहिंसक बन सकता है किन्तु कायर के लिये अहिंसक बनना असम्भव है. अहिंसा की पहली शर्त शत्रु के प्रति मित्रता या प्रेम भावना है. छोटा बालक बहुत-सी वस्तुएं तोड़-फोड़ डालता है, माता को उससे परेशानी होती है, किन्तु वह मुस्करा कर टाल देती है. बालक के भोलेपन पर उसका प्रेम और भी बढ़ जाता है. मित्रता या प्रेम की यह पहली शर्त है दूसरे के द्वारा हानि पहुँचाने पर क्रोध न आना प्रत्युत उपस्थित किये गये कष्टों, झंझटों तथा हानियों से संघर्ष करने में अधिकाधिक आनन्द अनुभव करना. अहिंसक शत्रु से डर कर शत्रु को क्षमा नहीं करता किन्तु उसकी भूल को दुर्बलता समझ कर क्षमा करता है. अहिंसा की इस भूमि पर बिरले ही पहुँचते हैं. जो व्यक्ति पूर्णतया अपरिग्रही हैं, अर्थात् जिन्हें धन-सम्पत्ति, मान-अपमान तथा अपने शरीर से भी ममत्व नहीं है, जो समस्त स्वार्थों को त्याग चुके हैं वे ही ऐसा कर सकते हैं. दूसरों के लिये अहिसा ही दूसरी कोटि है कि निरपराध को दण्ड न दिया जाय किन्तु अपराधी का दमन करने के लिये हिंसा का प्रयोग किया जा सकता है. उसमें भी अपराधी को सुधारने या उसके कल्याण की भावना रहनी चाहिए उसे नष्ट करने की नहीं. द्वेषबुद्धि जितनी कम होगी व्यक्ति उतना ही अहिंसा की ओर अग्रसर कहा जायेगा. भारतीय इतिहास में अनेक जैन राजा-मंत्री, सेनापति तथा बड़े-बड़े व्यापारी हो चुके हैं. समस्त प्रवृत्तियाँ करते हुए भी वे जैन बने रहे. अहिंसा और जीवन-निर्वाह कुछ समय से यह प्रश्न उठा है कि भारत की जन-संख्या बहुत बढ़ गई है परिणाम स्वरूप खाद्य-सामग्री कम पड़ने लगी है अतः सरकार की ओर से मछलियाँ पालने तथा उन्हें खाने को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. ऐसी स्थिति में एक जैन का क्या कर्तव्य है ? खाद्य-सामग्री की कमी को दूर करने के अनेक उपाय हैं. भारत के क्षेत्रफल को देखते हुए कमी नहीं होनी चाहिए. उपज बढ़ाना तथा जन-संख्या की वृद्धि को रोकना आदि अनेक उपाय काम में लाये जा सकते हैं. उस चर्चा में न जा कर हम खाद्य संकट को वास्तविक मान कर चलते हैं.
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डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री : श्रावकधर्म : २०५
जैन का अर्थ है वह व्यक्ति, जो जैन सिद्धांतों में विश्वास रखता है. जो व्यक्ति मांसाहारी वैश्यागमन आदि को नहीं छोड़ता फिर भी जैन सिद्धांत में अनुराग रखता है, उसे अपने आप को जैन कहने का अधिकार है, श्रावक, साधु तथा वीतराग की श्रेणियाँ उसके ऊपर हैं. मांसाहार बुरा होने पर भी करने या छोड़ने मात्र से कोई जैन या अजैन नहीं बनता. यह बात प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा और उत्साह पर निर्भर है कि वह त्याग के मार्ग पर कितना आगे बढ़ता है. साधु प्राण-संकट आने पर भी दूसरे की हिंसा नहीं करता, उसकी चर्या निरपवाद है, किन्तु श्रावक को आवश्यकतानुसार छूट रहती है. वह अपनी शक्ति और परिस्थिति के अनुसार ही व्रतों का पालन करता है. यदि वह मांसाहार को बुरा समझता है और प्राण संकट आने पर भी उस ओर नहीं जाना चाहता तो वह उच्चादर्श है यदि इतनी शक्ति या साहस नहीं है तो हेय समझता हुआ भी वह उसका सेवन करेगा, किन्तु जब तक जैन सिद्धांतों पर उसका विश्वास अक्षुण्ण है तब तक उसे जैन ही कहा जायेगा.
त्याग का सर्वोत्कृष्ट रूप तीन करण तीन योग से है. अर्थात् जहाँ साधक यह निश्चय करता है कि मैं किसी सावद्य प्रवृत्ति को मन, वचन और काया से न स्वयं करूंगा, न स्वयं कराऊँगा, और न करने वाले का अनुमोदन करूंगा. इस प्रकार का त्याग साधु का ही होता है क्योंकि वह सांसारिक उत्तरदायित्व को छोड़कर एकान्त आत्मचिन्तन में लीन रहने लगता है. परिवार या समाज से किसी प्रकार का लौकिक सम्बन्ध नहीं रखता, श्रावक का त्याग निम्न कोटि का होता है. बहुत से कार्य वह अपने हाथ से नहीं करता किन्तु दूसरे से कराने की छूट रखता है. बहुत से ऐसे हैं जो न करता कराता है। किन्तु उनके अनुमोदन का त्याग नहीं करता. त्याग की इन कोटियों को लक्ष्य में रख कर शास्त्र में ४६ भंग किये गये हैं. सबसे स्थूल त्याग है एक करण एक योग अर्थात् अपने हाथ से स्वयं न करना. इसी प्रकार एक करण दो योग, एक करण तीन योग, दो करण एक योग आदि भंग बताये गये हैं. श्रावक प्रायः दो करण तीन योग से त्याग करता है अर्थात् मन वचन और काया से स्वयं नहीं करता तथा दूसरे से नहीं कराता, उसे अनुमोदन करने का परित्याग नहीं होता.
श्रावक अपने प्रथम अरणुव्रत में यह निश्चय करता है कि मैं निरपराध त्रस जीवों की हिंसा नहीं करूँगा अर्थात् उन्हें जान-बूझ कर नहीं मारूंगा. इस व्रत के पाँच अतिचार हैं जिनकी तत्कालीन श्रावक के जीवन में सम्भावना बनी रहती थी वे इस प्रकार हैं
१. बन्ध - पशु तथा नौकर चाकर आदि आश्रितजनों को कष्टदायी बन्धन में रखना यह बन्धन शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक आदि अनेक प्रकार का हो सकता है.
२. वध -- उन्हें बुरी तरह पीटना
३. छबिच्छेद – उनके हाथ, पांव आदि अंगों को काटना.
४. अतिभार- उन पर अधिक बोझ लादना नौकरों से अधिक काम लेना भी अतिभार है.
५. भक्तपानविच्छेद – उन्हें समय पर भोजन तथा पानी न देना नौकर को समय पर वेतन न देना जिससे उसे तथा घर वालों को कष्ट पहुँचे.
सत्य व्रत
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श्रावक का दूसरा व्रत मृषावाद - विरमण अर्थात् असत्यभाषण का परित्याग है.
उमास्वाति ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि 'असदभिधानमनृतम्' असदभिधान के तीन अर्थ हैं ( १ ) असत् अर्थात् जो बात नहीं है उसका कहना. (२) बात जैसी है उसे वैसी न कह कर दूसरे रूप में कहना, एक ही तथ्य को ऐसे रूप में भी उपस्थित किया जा सकता है जिससे सामने वाले पर अच्छा प्रभाव पड़े. उसी को बिगाड़ कर रक्खा जा सकता है जिससे सामने वाला नाराज हो जाय. सत्यवादी का कर्त्तव्य है कि वस्तु को वास्तविक रूप में रखे, उसे बनाने या बिगाड़ने का प्रयत्न न करे. (३) इसका तीसरा अर्थ है अख-बुराई या दुर्भावना को लेकर किसी से कहना. यह
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५०६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय दुर्भावना दो प्रकार की है (१) स्वार्थसिद्धि-मूलक अर्थात् अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये दूसरे को गलत बात बताना. (२) द्वेषमूलक-दूसरे को हानि पहुँचाने की भावना. इस व्रत का मुख्य सम्बन्ध भाषण के साथ है; किन्तु दुर्भावना से प्रेरित मानसिक चिन्तन तथा कायिक व्यापार भी इसमें आ जाते हैं. सत्य की श्रेष्ठता के विषय में उपनिषद् में कहा है-'सत्यमेव जयते नानृतं' अर्थात् सत्य की जीत होती है, झूठ की नहीं. दूसरा वाक्य जैन-शास्त्रों में मिलता है-'सच्चं लोगम्मि सारभूयं'-अर्थात् सत्य ही दुनिया में सारभूत है. इन दोनों में भेद बताते हुए काका कालेलकर ने लिखा है कि प्रथम वाक्य में हिंसा मिली हुई है, जीत में हारने वाले की हिंसा छिपी हुई है. अहिंसक मार्ग तो वह है जहाँ शत्रु और मित्र दोनों की जीत होती है, हार किसी की नहीं होती. दूसरा वाक्य यह बताता है कि सत्य ही विश्व का सार है, उसी पर दुनिया टिकी हुई है. जिस प्रकार गन्ने का मूल्य उसके सार अर्थात रस पर आश्रित है इसी प्रकार जीवन का मूल्य सत्य पर आधारित है. यहाँ जीत और हार का प्रश्न नहीं है. उपनिषदों में सत्य को ईश्वर का रूप बताया गया है और उसे लक्ष्य में रख कर अभय अर्थात् अहिंसा का उपदेश दिया गया है. जैन-धर्म आचारप्रधान है अतः अहिंसा को सामने रख कर उस पर सत्य की प्रतिष्ठा करता है. उपनिषदों में विश्व के मूलतत्त्वों की खोज अर्थात् दर्शनशास्त्र की प्रधानता है. अतः वहां सत्य को आधार बनाकर अहिंसा का संदेश दिया गया है. इसी का दूसरा नाम एकता का दर्शन या अभेद का साक्षात्कार है, वहाँ भेदबुद्धि ही हिंसा है. श्रावक अपने सत्य-व्रत में स्थूल-मृषावाद का त्याग करता है. उन दिनों स्थूल-मृषावाद के जो रूप थे, यहाँ उनकी गणना की गई है : १. कन्यालीक-वैवाहिक संबन्ध के समय कन्या के विषय में झूठी बातें कहना. उसकी आयु, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के विषय में दूसरे को धोखा देना. इस असत्य के परिणाम स्वरूप वर तथा कन्यापक्ष में ऐसी कटुता आजाती है कि कन्या का जीवन दूभर हो जाता है. २. गवालीक-गाय, भैंस आदि पशुओं का लेन-देन करते समय झूठ बोलना. वर्तमान समय को लक्ष्य में रखकर कहा जाय तो क्रय-विक्रय संबन्धी सारा झूठ इसमें आजाता है. ३. भूम्यलीक-भूमि के संबन्ध में झूठ बोलना. ४. स्थापनमृषा-किसी की धरोहर या गिरवी रखी हुई वस्तु के लिये झूठ बोलना. १. कूटसाक्षी-न्यायालय आदि में झूठी साक्षी देना. उपरोक्त पांचों बातें व्यवहारशुद्धि से संबन्ध रखती हैं और स्वस्थ समाज के लिये आवश्यक है. इस व्रत के पाँच अति चार निम्नलिखित हैं: १. सहसाभ्याख्यान-विना विचारे किसी पर झूठा आरोप लगाना. २. रहस्याभ्याख्यान-राग में आकर विनोद के लिये किसी पति-पत्नी अथवा अन्य स्नेहियों को अलग कर देना, किंवा किसी के सामने दूसरे पर दोषारोपण करना. ३. स्वदारमन्त्रभेद-आपस में प्रीति टूट जाय, इस ख्याल ने एक-दूसरे की चुगली खाना या किसी की गुप्त बात को प्रकट कर देना. ५. मिथ्योपदेश–सच्चा-झूठा समझा कर किसी को उल्टे रास्ते डालना. ५. कूट लेखक्रिया-मोहर, हस्ताक्षर आदि द्वारा झूठी लिखा-पढ़ी करना तथा खोटा सिक्का चलाना आदि. तत्त्वार्थसूत्र में सहसाभ्याख्यान के स्थान पर न्यासापहार है, इसका अर्थ है किसी की धरोहर रख कर इंकार कर जाना.
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डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री : श्रावकधर्म : ५०७ प्रचीयं प्रत
श्रावक का तीसरा व्रत अचौर्य है. वह स्थूल चोरी का त्याग करता है. इसके नीचे लिखे रूप हैं :
दूसरे के घर में सेंध लगाना, ताला तोड़ना या अपनी चाभी लगा कर खोलना, विना पूछे दूसरे की गांठ खोल कर चीज निकालना, यात्रियों को लूटना अथवा डाके मारना.
इस व्रत के पांच अतिचार नीचे लिखे अनुसार हैं :
१. स्तेनाहृत -चोर के द्वारा लाई गई चोरी की वस्तु खरीदना या घर में रखना.
२. तस्करप्रयोग - आदमी रख कर चोरी, डकैती, ठगी आदि कराना.
३. विरुद्वराज्यातिक्रम — भिन्न-भिन्न राज्य वस्तुओं के आयात-निर्यात पर कुछ बन्धन लगा देते हैं अथवा उन पर कर आदि की व्यवस्था कर देते हैं. राज्य के ऐसे नियमों का उल्लंघन करना विरुद्ध राज्यातिक्रम है.
४. कूटतुला कूटमान- -नाप तथा तोल में बेईमानी करना.
२. तत्प्रतिरूपक व्यवहार-वस्तु में मिलावट करना या अच्छी वस्तु दिखा कर बुरी वस्तु देना.
सत्य तथा अचौर्य व्रत के अतिचारों का व्यापार तथा व्यवहार में कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, यह बताने की आवश्यकता नहीं.
स्वदारसन्तोष व्रत
श्रावक का चौथा व्रत ब्रह्मचर्य है. इसमें वह परायी स्त्री के साथ सहवास का परित्याग करता है और अपनी स्त्री के साथ उसकी मर्यादा स्थिर करता है. यह व्रत सामाजिक सदाचार का मूल है और वैयक्तिक विकास के लिये भी अत्यावश्यक है. इसके पाँच अतिचार निम्न हैं:
१. इcate परिग्रहीतागमन - ऐसी स्त्री के साथ सहवास करना जो कुछ समय के लिये ग्रहण की गई हो. भारतीय संस्कृति में विवाह संबन्ध समस्त जीवन के लिये होता है. ऐसी स्त्री भोग और त्याग दोनों में सहयोग देती है जैसा कि आनन्दादिक श्रावकों की पत्नियों के जीवन से सिद्ध होता है. इसके विपरीत, जो स्त्री कुछ समय के लिये अपनाई जाती है वह भोग के लिये होती है, वह जीवन के उत्थान में सहायक नहीं हो सकती. श्रावक को ऐसी स्त्री से गमन नहीं करना चाहिए.
२. अपरिगृहीतनमन
वंश्या आदि के साथ सहवास
३. ग्रनंगक्रीड़ा —– अप्राकृतिक मैथुन अर्थात् सहवास के प्राकृतिक अंगों को छोड़कर अन्य अंगों से सहवास करना.
४. परविवाहकरण -- दूसरों का परस्पर संबन्ध कराना.
५. कामभोगतीवाभिलाष—विषय भोग तथा काम-क्रीड़ा में तीव्र आसक्ति.
परविवाहकरण अतिचार होने पर भी श्रावक के लिये उसकी मर्यादा निश्चित है. अपनी सन्तान तथा आश्रित जनों का विवाह करना उसका उत्तरदायित्व है. इसी प्रकार पशुधन रखने वाले को गाय, भैंस आदि पशुओं का संबन्ध भी कराना पड़ता है, श्रावक को इसकी छूट है.
अपरिग्रह परिमाण - व्रत
इसका अर्थ है श्रावक को अपनी धन-सम्पत्ति की मर्यादा निश्चित करनी चाहिए और उससे अधिक सम्पत्ति न रखनी चाहिए. सम्पत्ति हमारे जीवन निर्वाह का एक साधन है. साधन वहीं तक उपादेय होता है जहाँ तक वह अपने साध्य की पूर्ति करता है. संपत्ति सुख के स्थान पर दुखों का कारण बन जाती है और आत्म-विकास को रोकती है अतः हेय है. इसी
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५०८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-प्रन्थ : द्वितीय अध्याय लिए साधु सम्पत्ति का सर्वथा त्याग करता है और भिक्षा पर जीवन निर्वाह करता है. साधु वस्त्र—आदि उपकरणों की तरह अपने शरीर के प्रति भी ममत्व नहीं करता. श्रावक भी उसी लक्ष्य को आदर्श मानता है किन्तु लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मर्यादित सम्पत्ति रखता है. आज मानव भौतिक विकास को अपना लक्ष्य मान रहा है. वह 'स्व' के लिये सम्पत्ति के स्थान पर सम्पत्ति के लिये 'स्व' को मानने लगा है. भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिये समस्त आध्यात्मिक गुणों को तिलांजलि दे रहा है. परिणाम-स्वरूप तथाकथित विकास विभीषिका बन गया है. परिग्रह परिमाण व्रत इस बात की ओर संकेत करता है कि जीवन का लक्ष्य बाह्य सम्पत्ति नहीं है. इस व्रत का महत्त्व एक अन्य दृष्टि से भी है. संसार में सोना, चांदी, भूमि, अन्न, वस्त्रादि सम्पत्ति कितनी भी हो, पर वह अपरिमित नहीं है. यदि एक व्यक्ति उसका अधिक संचय करता है तो दूसरे के साथ संघर्ष होना अनिवार्य है. इसी आधार पर राजाओं और पूंजीपतियों में परस्पर चिरकाल से संघर्ष चले आ रहे हैं, जिनका भयंकर परिणाम साधारण जनता भुगतती आ रही है. वर्तमान युग में राजाओं और व्यापारियों ने अपने-अपने संगठन बना लिये हैं और उन संगठनों में परस्पर प्रतिद्वन्द्विता चलती रहती है. यह सब अनर्गल लालसा और सम्पत्ति पर किसी प्रकार की मर्यादा न रखने का परिणाम है. इसी असन्तोष की प्रतिक्रिया के रूप में रूस ने राज्य-क्रान्ति की और सम्पत्ति पर वैयक्तिक अधिकार को समाप्त कर दिया. दूसरी ओर भूपतियों की सत्ता-लालसा और परिणामस्वरूप होने वाले भयंकर युद्धों को रोकने वाले लोकतन्त्री शासन-पद्धति प्रयोग में लाई गई. फिर भी समस्याएं नहीं सुलझी. जब तक व्यक्ति नहीं सुधरता, संगठनों से अपेक्षित लाभ नहीं मिल सकता. क्योंकि संगठन व्यक्तियों के समूह का ही नाम है. परिग्रहपरिमाण व्रत वैयक्तिक जीवन पर स्वेच्छा से अंकुश रखने के लिये कहता है. इसमें नीचे लिखे नौ प्रकार के परिग्रह की मर्यादा का विधान है : १. क्षेत्र-(खेत) अर्थात् उपजाऊ भूमि की मर्यादा. २. वस्तु-मकान आदि. ३. हिरण्य-चांदी. ४. सुवर्ण-सोना. ५. द्विपद-दास, दासी. ६. चतुष्पद-गाय, भैस घोड़े आदि पशुधन. ७. धन–रुपये पैसे सिक्के या नोट आदि. ८. धान्य-अन्न, गेहूँ, चावल आदि खाद्य-सम्पति. ६. कुप्य या गोप्य-तांबा, पीतल आदि अन्य धातुएं. कहीं कहीं हिरण्य में सुवर्ण के अतिरिक्त शेष सब धातुएं ग्रहण की गई हैं और कुप्य या गोप्य धन का अर्थ किया है हीरे, माणिक्य, मोती रत्न आदि. इस व्रत के अतिचारों में प्रथम आठ को दो-दो की जोड़ी में इक्ट्ठा कर दिया गया है और नवें को अलग लिया गया है, इस प्रकार नीचे लिखे पांच अतिचार बताये गये हैं : १. क्षेत्र-वास्तु परिमाणातिक्रम. २. हिरण्य-सुवर्ण परिमाणातिक्रम. ३. द्विपद-चतुष्पदपरिमाणातिक्रम. ४. धन-धान्यपरिमाणातिक्रम. १. कुप्यपरिमाणातिक्रम.
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डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री : श्रावकधर्म : ५० दिशा-परिमाण व्रत पांचवें व्रत में सम्पत्ति की मर्यादा स्थिर की गई. छठे दिशापरिमाण व्रत में प्रवृत्तियों का क्षेत्र सीमित किया जाता है. श्रावक यह निश्चय करता है कि ऊपर नीचे एवं चारों दिशाओं में निश्चित सीमा से आगे बढ़कर मैं कोई स्वार्थमूलक प्रवृत्ति नहीं करूंगा. साधु के लिये क्षेत्र की मर्यादा का विधान नहीं है क्योंकि उसकी कोई प्रवृत्ति हिंसात्मक या स्वार्थमूलक नहीं होती. वह किसी को कष्ट नहीं पहुंचाता प्रत्युत धर्म प्रचारार्थं ही घूमता है. विहार अर्थात् धर्म-प्रचार के लिये घूमते रहना उसकी सावना का आवश्यक अंग है किन्तु श्रावक की प्रवृत्तियां हिंसात्मक भी होती हैं अतः उनकी मर्यादा स्थिर करना आवश्यक है.
विभिन्न राज्यों में होने वाले संघर्षो को रखकर विचार किया जाय तो इस व्रत का महत्त्व ध्यान में आ जाता है और यह प्रतीत होने लगता है कि वर्तमान युग में भी इस का कितना महत्त्व है. यदि विभिन्न राज्य अपनी-अपनी राजनीतिक एवं आर्थिक सीमाएं निश्चत करलें तो बहुत से संघर्ष रुक जाएं. बीजवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रों में परस्पर व्यवहार के लिये पंचशील के रूप में जो आचार संहिता बनाई थी उसमें इस सिद्धान्त को प्रमुख स्थान दिया है कि कोई राज्य दूसरे राज्य में हस्तक्षेप नहीं करेगा.
इस व्रत के पांच अतिचार निम्नलिखित हैं :
१. ऊर्ध्व दिशा में मर्यादा का अतिक्रमण.
२. अधो दिशा में मर्यादा का अतिक्रमण.
३. तिरछी दिशा अर्थात् पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण में मर्यादा का अतिक्रमण. अर्थात् असावधानी या भूल में मर्यादा के क्षेत्र को बढ़ा लेना.
४. क्षेत्र ५. स्मृति - अन्तर्धान-मर्यादा का स्मरण न रखना.
उपभोगपरिभोग- परिमाण-व्रत
सातवें व्रत में वैयक्तिक आवश्यकताओं पर नियंत्रण किया गया है. उपभोग का अर्थ है भोजन - पानी आदि वस्तुएं जो अनेक बार काम में लाई जा सकती हैं. उपभोग और परिभोग शब्दों का उपरोक्त अर्थ भगवती शतक ७ उद्देशा २ में तथा हरिभदीयावश्यक अध्ययन ६ सूत्र ७ में किया गया है. उपासकदशांग सूत्र की अभयदेव टीका में उपरोक्त अर्थ के साथ विपरीत अर्थ भी दिया गया है अर्थात् एक बार काम में आने वाली वस्तु को परिभोग तथा बार-बार काम में आने वाली वस्तु को उपभोग बताया गया है.
इस व्रत में दो दृष्टियां रखी गई हैं—भोग और कर्म. भोग की दृष्टि को लक्ष्य में रखकर २६ बातें गिनाई गई हैं जिनकी मर्यादा स्थिर करना श्रावक के लिये आवश्यक है, उनमें भोजन, स्नान, विलेपन, दन्तधावन, वस्त्र आदि समस्त वस्तुएं आ गई हैं. इस से ज्ञात होता है कि श्रावक के जीवन में किस प्रकार का अनुशासन था, किस प्रकार वह अपने जीवन को सन्तोषमय और सादा बनाता है. उनमें स्नान तथा दन्तधावन आदि का स्पष्ट उल्लेख है. अतः जैनियों पर गन्दे रहने का जो आरोप लगाया जाता है वह मिथ्या है, अपने आलस्य या अविवेक के कारण कोई भी गन्दा रह सकता है - वह जैन हो या अजैन, उसके लिये धर्म को दोष देना उचित नहीं है. दूसरी दृष्टि कर्म की अपेक्षा से है. श्रावक को ऐसी आजीविका नहीं करनी चाहिए जिसमें अधिक हिंसा हो, जैसे- कोयले बनाना, जंगल साफ करना, बैल आदि को नाथना या खस्सी करना आदि उसको ऐसे धन्धे भी नहीं करना चाहिए जिनसे अपराध या दुराचार की वृद्धि हो, जैसे—दुराचारिणी स्त्रियों को नियुक्त करके वैश्यावृत्ति कराना, चोर, डाकुओं को सहायता देना आदि. इसके लिये १५ कर्मादान गिनाए गए हैं. उपरोक्त २६ बातों तथा १५ कर्मादानों को विस्तृत रूप में जानने के लिये उपासकदशांग सूत्र का प्रथम आनन्द अध्ययन देखना चाहिए.
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११० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
अनर्थदण्ड विरमण-व्रत पाँचवें व्रत में सम्पत्ति की मर्यादा की गई और छठे में सम्पत्ति या स्वार्थमूलक प्रवृत्तियों की. सातवें में प्रतिदिन व्यवहार में आनेवाली भोग्यसामग्री पर नियंत्रण किया गया. आठवें में वैयक्तिक हलचल या शारीरिक चेष्टाओं पर अनुशासन है. श्रावक के लिये व्यर्थ की बातें करना, शेखी मारना, निष्प्रयोजन प्रवृत्ति करना वर्जित है. इसी प्रकार उसे अपनी घरेलु वस्तुएं व्यवस्थित रखनी चाहिए. ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे लाभ कुछ भी न हो और दूसरे को कष्ट पहुँचे । अनर्थदण्ड अर्थात् निष्प्रयोजन हिंसा के चार रूप बताये गये हैं : १. अपध्यानाचरित-चिता या क्रूर विचारों के कारण होने वाली हिंसा. धन सम्पत्ति का नाश, पुत्र-स्त्री आदि प्रियजन का वियोग आदि कारणों से मनुष्य को चिन्तायें होती रहती हैं किन्तु उनसे लाभ कुछ भी नहीं वरन् अपनी ही आत्मा निर्बल होती है. इसी प्रकार क्रूर या द्वेषपूर्ण विचार रखने से भी कोई लाभ नहीं होता ऐसे विचारों को अपध्यानाचरित अनर्थदण्ड कहा गया है. २. प्रमादाचरित-आलस्य या असावधानी के कारण होने वाली हिंसा. घी, तेल तथा पानी वाली खाद्य वस्तुओं को विना हुँके रखना तथा अन्य प्रकार की असावधानी इस श्रेणी में आ जाती है. यदि कोई व्यक्ति सड़क पर चलते समय, यात्रा करते समय या अन्य व्यवहार में दूसरे का ध्यान नहीं रखता और ऐसी चेष्टाएं करता है जिससे दूसरे को कष्ट पहुंचे तो यह सब प्रमादाचरित है । ३. हिंस्रप्रदान--दूसरे व्यक्ति को शिकार खेलने आदि के लिये शस्त्रास्त्र देना जिससे व्यर्थ ही हिंसा के प्रति निमित्त बनना पड़े. हिंसात्मक कार्यों के लिये आर्थिक या अन्य प्रकार की सभी सहायता इसमें आ जाती हैं. ४. पापकर्मोपदेश-किसी मनुष्य या पशु को मारने, पीटने या तंग करने के लिये दूसरों को उभारना. बहुधा देखा गया है कि बालक विना किसी द्वेष-बुद्धि के किसी भिखमंगे, या घायल-पशु को तंग करने लगते हैं और पास में खड़े दूसरे मनुष्य तमाशा देखने के लिये उन्हें उकसाते हैं यह सब पापकर्मोपदेश है. इसी प्रकार चोरी, डकैती, वेश्यावृत्ति आदि के लिये दूसरों को प्रेरित करना, व ऐसी सलाह देनी भी इसी के अन्तर्गत है. इस व्रत के पाँच अतिचार निम्नलिखित हैं : १. कदंर्प-कामोत्तेजक चेपायें या बातें करना, २. कौत्कुच्य-भांडों के समान हाथ, पैर पटकाना तथा नाक मुंह आँख आदि से विकृत चेष्टायें करना. ३. मौखर्य-मुख र अर्थात् वाचाल बनना. बढ़-बढ़ कर बातें करना और अपनी शेखी मारना. ४. संयुक्ताधिकरण-हथियारों एवं हिंसक साधनों की आवश्यकता के विना ही जोड़ कर रखना. ५. उपभोगपरिभोगातिरेक-भोग्य सामग्री को आवश्यकता से अधिक बढ़ाना. वैभव प्रदर्शन के लिये मकान, कपड़े, फर्निचर आदि का आवश्यकता से अधिक संग्रह करना आदि इस अतिचार के अन्तर्गत हैं. इससे दूसरों में ईर्ष्या वृत्ति उत्पन्न होती है और अपना जीवन उन्हीं की व्यवस्था में उलझ जाता है.
सामायिक-व्रत छठे, सातवें और आठवें व्रत में व्यक्ति की बाह्य चेष्टाओं पर नियंत्रण बताया गया. नवें से लेकर बारवें तक चार व्रत आन्तरिक अनुशासन या शुद्धि के लिये हैं. इनका अनुष्ठान साधना के रूप में अल्प समय के लिये किया जाता है. जिस प्रकार वैदिक परम्परा में संध्या-वंदन तथा मुसलमानों में नमाज दैनिक कृत्य के रूप में विहित हैं, उसी प्रकार जैन-परम्परा में सामायिक और प्रतिक्रमण हैं. सामायिक का अर्थ है जीवन में समता को उतारने का अभ्यास. साधु का सारा जीवन सामायिक रूप होता है अर्थात् उसका प्रत्येक कार्य समता का अनुष्ठान है. श्रावक प्रतिदिन कुछ समय के
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डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री : श्रावकधर्म : ५११ लिये उसका अनुष्ठान करता है. समता का अर्थ 'स्व' और 'पर' में समानता जैनधर्म का कथन है कि जिस प्रकार हम सुख चाहते हैं और दुःख से घबराते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी चाहता है. हमें दूसरे के साथ व्यवहार करते समय उसके स्थान पर अपने को रखकर सोचना चाहिए, उसके कष्टों को अपना कष्ट, उसके सुख को अपना सुख मानना चाहिए. समता के इस सिद्धान्त पर विश्वास रखने वाला व्यक्ति किसी की हिंसा नहीं करेगा. किसी को कठोर शब्द नहीं कहेगा और न मन में किसी का बुरा सोचेगा. पहले बताया जा चुका है कि व्यवहार में समता का अर्थ है अहिंसा जो जैनशास्त्र का प्राण है. विचारों में समता का अर्थ है स्याद्वाद, जो जैनदर्शन की आधारशिला है.
प्रतिक्रमण का अर्थ है वापिस लौटना. साधक अपने पिछले कृत्यों की ओर लोटता है. उनके भले-बुरे पर विचार करता है, भूलों के लिये पश्चात्ताप करता है और भविष्य में उनसे बचे रहने का निश्चय करता है. श्रावक और साधु दोनों के लिये प्रतिक्रमण का विधान है. इसका दूसरा नाम आवश्यक है अर्थात् यह एक आवश्यक दैनिक कर्त्तव्य है.
श्रावक के व्रतों में सामायिक का नवां स्थान है किन्तु आत्मशुद्धि के लिये विधान किये गए चार व्रतों में इसका पहला स्थान है. इसके पांच अतिचार निम्नलिखित हैं :
१. मनोदुष्प्रणिधान – मन में बुरे विचार आना.
२. वचनदुष्प्रणिधान – वचन का दुरुपयोग, कठोर या असत्य भाषण.
२. कायष्यवान शरीर की प्रवृत्ति
४- स्मृत्यकरण - सामायिक को भूल जाना अर्थात् समय आने पर न करना.
५. अनवस्थितता - सामायिक को अस्थिर होकर या शीघ्रता में करना निश्चित विधि के अनुसार न करना.
इस व्रत में श्रावक यथाशक्ति दिन-रात या अल्प समय के लिये धर्म के लिये साधु के समान चर्या का पालन करता है. सामायिक प्रायः दो घड़ी के लिये की जाती है और सारा समय धार्मिक अनुष्ठान में लगाया जाता है. खाना पीना, नींद लेना आदि वर्जित हैं किन्तु इस व्रत में भोजन आदि वर्जित नहीं है किन्तु उनमें अहिंसा का पालन आवश्यक है. इस व्रत को देशावकाश कहा जाता है. अर्थात् इसमें साधक निश्चित काल के लिये देश या क्षेत्र की मर्यादा करता है, उसके बाहर किसी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं करता.
देशावकाशिक व्रत
श्रावक के लिये चौदह नियमों का विधान है अर्थात् उसे प्रतिदिन अपने भोजन, पान तथा अन्य प्रवृत्तियों के विषय में मर्यादा निश्चित करना चाहिए. इससे जीवन में अनुशासन तथा दृढ़ता आती है. वे निम्नलिखित है :
१. सचित्त- प्रतिदिन अन्न, फल, पानी आदि के रूप में जिन सचित्त अर्थात् जीवसहित वस्तुओं का सेवन किया जाता है उनकी मर्यादा निश्चित करना. यह मर्यादा संख्या, तोल एवं वार के रूप में की जाती हैं.
२. द्रव्य – खाने, पीने सम्बन्धी वस्तुओं की मर्यादा, उदाहरण के रूप में भोजन के समय अमुक संख्या से अधिक भोजन नहीं ग्रहण करूंगा.
३. विगय घी, तेल, दूध, दही, गुड़ और पक्वान्न की मर्यादा.
४. परणी
५. ताम्बूल पान, सुपारी, इलायची, चूर्ण, खटाई आदि की मर्यादा.
६. वस्त्र- -प्रतिदिन वस्त्रों के पहनने की मर्यादा.
७. कुसुम - फूल, इत्र आदि सुगन्धित पदार्थों की मर्यादा.
८. वाहन सवारी की मर्यादा.
६. शयन शैय्या एवं स्थान की मर्यादा.
उपानहं (जूते, मोजे बड़ा आदि पैर में पहनी जाने वाली वस्तुओं) की मर्यादा.
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२१२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
१०. विलेपन केसर, चन्दन, तेल आदि लेप किये जाने वाले द्रव्यों की मर्यादा.
११. ब्रह्मचर्य -मैथुन सेवन की मर्यादा.
१२. दिशि ऊपर, नीचे तथा चारों दिशाओं में यातायात तथा अन्य प्रवृत्तियों की मर्यादा. १३. स्नान स्नानों की संख्या तथा जल की मर्यादा. १४. भक्त- -चार प्रकार के आहार की मर्यादा.
इस व्रत के निम्नलिखित पांच अतिचार हैं :
१. श्रानयनप्रयोग — मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु मंगाने के लिये किसी को भेजना.
२. प्रेष्यप्रयोग - नौकर चाकर आदि को भेजना.
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३. शब्दानुपात - किसी प्रकार के शाब्दिक संकेत द्वारा बाहर की वस्तु मंगाना.
४. रूपानुपात - हाथ आदि का इशारा करना,
५. पुदगलप्रक्षेप - कंकर, पत्थर आदि फेंक कर किसी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना.
पौषधोपवास व्रत
'पौषध' शब्द संस्कृत के उपवषथ शब्द से बना है. इसका अर्थ है धर्माचार्य के समीप या धर्मस्थान में रहना उपवषथ अर्थात् धर्म स्थान में निवास करते हुए उपवास करना पौषधोपवास व्रत है. यह दिन-रात अर्थात् आठ प्रहरों का होता है और अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों पर किया जाता है.
इस व्रत में नीचे लिखा त्याग किया जाता :
१. भोजन, पानी आदि चारों प्रकार के आहारों का त्याग.
२. अब्रह्मचर्य का त्याग.
३. आभूषणों का त्याग.
४. माला, तेल आदि सुगंधित द्रव्यों का त्याग.
५. समस्त सावध अर्थात् दोषपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग.
इसके पांच अतिचार निवास स्थान की देखरेख एवं प्रभार्जन के साथ संबंध रखते हैं.
अतिथिसंविभाग व्रत
संविभाग का अर्थ है अपनी सम्पत्ति एवं भोग्य वस्तुओं में विभाजन करना अर्थात् दूसरे को देना अतिथि के लिये किया जाने वाला विभाजन अतिथि संविभाग है. वैदिक परम्परा में भी अतिथिसेवा गृहस्थ के प्रधान कर्त्तव्यों में गिनी गई है किन्तु जैन परम्परा में अतिथि शब्द का विशिष्ट अर्थ है. यहाँ निर्दोष जीवन व्यतीत करने वाले साधुओं को ही अतिथि माना गया है. उन्हें भोजन, पानी वस्त्र आदि देना अतिथि संविभाग व्रत है. इसके नीचे लिखे पांच अतिचार हैं :
३. सचित्ताविधान - साधु के ग्रहण करने योग्य निर्दोष आहार में कोई सचित्त वस्तु मिला देना जिससे वह ग्रहण न कर सके.
२. सचित्तपिधान – देने योग्य वस्तु को सचित्त वस्तु से ढंकना.
३. कालातिक्रम - भोजन का समय व्यतीत होने पर निमंत्रित करना.
४. परव्यपदेशन देने की भावना से अपनी वस्तु को परायी बताना.
५. मात्सर्य -- मन में ईर्ष्या या दुर्भावना रखकर दान देना.
जैनधर्म में दान के दो रूप हैं—अनुकम्पादान और सुपात्र दान. अनुकम्पा सम्यक्त्व का अंग है. इसका अर्थ है प्रत्येक
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________________ डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री : श्रावकधर्म : 13 दुखी या अभावग्रस्त को देख कर उसके प्रति करुणा या सहानुभूति प्रगट करना और उसके दुख को दूर करने के लिये यथाशक्ति सहायता देना. इससे आत्मा में उदारता, मैत्री आदि सद्गुणों की वृद्धि होती है. साधु-साध्वी को दिया जाने वाला दान सुपात्र दान कहलाता है. ग्यारह प्रतिमायें लम्बे समय तक व्रतों का पालन करता हुआ श्रावक पूर्ण त्याग की ओर अग्रसर होता है. उत्साह बढ़ने पर एक दिन कुटुम्ब का उत्तरदायित्व सन्तान को सौंप देता है और पौषधशाला में जाकर सारा समय धर्मानुष्ठान में बिताने लगता है. उस समय वह उत्तरोत्तर साधुता की ओर बढ़ता है. कुछ दिनों तक अपने घर से भोजन मंगाना है और फिर उसका भी त्याग करके भिक्षा पर निर्वाह करने लगता है, इन व्रतों को ग्यारह प्रतिमाओं के रूप में प्रगट किया गया है. प्रतिमा शब्द का अर्थ है सादृश्य. जब श्रावक साधु के सदृश होने के लिये प्रयत्नशील होता है तो उसका आचार, प्रतिमा कहा जाता है. इन की विस्तृत चर्चा के लिये उपासकदांश सूत्र का आनंद अध्यन देखना चाहिए. -----------0-0--0-0-0 संलेखना-व्रत श्रमण परम्परा जीवन को अपने आप में लक्ष्य नहीं मानती. उसका कथन है कि साधना का लक्ष्य आत्मा का विकास है और जीवन उसका साधन मात्र है. जिस दिन यह प्रतीत होने लगे कि शरीर शिथिल हो गया है, वह धर्म साधना में सहायक होने के स्थान पर विघ्न-बाधाएं उपस्थित करने लगा है तो उस समय यह उचित है कि उसका परित्याग कर दे. इसी परित्याग को अंतिम संलेखना व्रत कहा है. इसमें श्रावक या साधु आहार का परित्याग करके धर्मचिंतन में लीन हो जाता है, न जीवन की आकांक्षा करता है, न मृत्यु की, न यश की, न ऐहिक या पारलौकिक सुखों की. धन, सम्पत्ति, परिवार, शरीर आदि सबसे अनासक्त हो जाता है. इस प्रकार आयुष्य पूरा होने पर शान्ति तथा स्थिरता के साथ देह का परित्याग करता है. इस व्रत को आत्म-हत्या समझना भूल है. व्यक्ति आत्म-हत्या तब करता है जब किसी कामना को पूरा नहीं कर पाता और वह इतनी बलवती हो जाती है कि उसकी पूर्ति के बिना जीवन बोझ जान पड़ता है और उस बोझ को उतारे विना शांति असम्भव प्रतीत होती है. आत्म-हत्या का दूसरा कारण उत्कट वेदना या मार्मिक आघात होता है. दोनों परिस्थितियां व्यक्ति की निर्बलता को प्रगट करती है. इसके विपरीत संलेखना त्याग की उत्कटता तथा हृदय की परम दृढ़ता को प्रगट करती है. जहाँ व्यक्ति विना किसी कामना के शान्तिपूर्वक अपने आप जीवन का उत्सर्ग करता है. आत्म-हत्या निराशा तथा विवशता की पराकाष्ठा है, संलेखना वीरता का वह उदात्त रूप है जहां एक सिपाही हंसते-हंसते प्राणों का उत्सर्ग कर देता है. सिपाही में आवेश रहता है किन्तु संलेखना में वह भी नहीं होता. इस व्रत के पाँच अतिचार निम्नलिखित हैं : 1. धन, परिवार आदि इस लोक सम्बन्धी किसी वस्तु की आकांक्षा करना. 2. स्वर्ग सुख आदि परलोक से सम्बन्ध रखने वाली किसी बात की आकांक्षा करना. 3. जीवन की आकांक्षा करना. 4. कष्टों से घबरा कर शीघ्र मरने की आकांक्षा करना. 5. अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के रूप में काम-भोगों की आकांक्षा करना. उपसंहार संलेखना तक जिन व्रतों का यहाँ प्रतिपादन किया गया है वे एक आदर्श गृहस्थ की चर्या प्रगट करते हैं. उपासकदशांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में इन सबका विस्तृत वर्णन है. Jain Education Intemational