Book Title: Shramano evam Shravako ka Parasparik Sambandh
Author(s): Jasraj Chopda
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ 243 || 10 जनवरी 2011 || | जिनवाणी बताया है अतएव विनय एवं विवेक श्रमण एवं श्रावक के सम्बन्धों की नींव के पत्थर हैं जिन पर सुदृढ़ धर्म एवं अध्यात्म का महल खड़ा किया जाता है। सच्चे चरित्र की पहचान भी प्रभु ने यही बताई है कि शुभ में प्रवृत्ति एवं अशुभ से निवृत्ति का नाम ही चारित्र है। विवेक के सम्बन्ध में कबीर फरमाते हैं कि "समझा-समझा एक है, अण समझा सब एक। समझा सो ही जानिए, जाके हृदय विवेक।" वस्तुतः ज्ञान, बुद्धि एवं हृदय का सामंजस्य ही विवेक है। बुद्धि एवं ज्ञान से समझे, परन्तु निर्णय लेते वक्त मात्र भावुकता से नहीं विवेक से काम ले वही सच्चा श्रावक है, क्योंकि भावुकतावश लिए गये निर्णय सही ही हों, यह आवश्यक नहीं है। विवेक की प्रशंसा करते हुए चाणक्य नीति कहती है'विवेकिनमनुप्राप्ता गुणा यान्ति मनोज्ञताम्। सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम्।' विवेकवान व्यक्ति के गुण स्वर्ण में जड़े हुए रत्न की तरह सुन्दर दिखाई देते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने विवेकशील श्रावक को सम्बोधित करके कहा है- 'विवेकिनां विवेकस्य फलं ह्यौचित्यवर्तनम्॥' विवेकशीलों के लिए विवेक का फल यही है कि वे सर्वत्र समय एवं आवश्यकता के अनुसार उचित व्यवहार करें। यही विवेकशीलता यानी विवेकशील व्यक्ति की पहचान है। जिस काम को करने से आपके मन में भय, शंका, लज्जा और ग्लानि का अनुभव हो ऐसा व्यवहार गुरु (श्रमण) तो क्या सामान्य जन के प्रति भी नहीं करना चाहिए। ऐसा करने वाले को मानना चाहिए कि उसका विवेक ऐसा करने से उसे रोक रहा है। जिस व्यवहार को प्रयोग में लाते आपको आनन्द, उत्साह, गौरव एवं प्रीति की अनुभूति हो तो समझ लें ऐसे व्यवहार को आपका विवेक आगे बढ़ने हेतु हरी झंडी दिखा रहा है। अतएव श्रावक का श्रमण के प्रति व्यवहार सदैव विनयनत एवं विवेक युक्त ही होना चाहिए। श्रावक को कभी सांसारिक कामना की पूर्ति हेतु गुरु से मांगलिक या आशीर्वाद नहीं मांगना चाहिए। श्रमण-साधु का क्षेत्र वीतरागता का क्षेत्र है। सांसारिक कामना की पूर्ति श्रमणों का क्षेत्र ही नहीं है। श्रावक को चाहिए कि श्रमण से फरियाद न करे, बल्कि उसके श्री चरणों में समर्पण करे। यदि फरियाद करोगे तो असली लाभ से वंचित रह जाओगे। गुरु या श्रमण का काम है श्रावक के राग-द्वेष, विषयकषाय एवं अहंकार को काट-छांट कर श्रावक के भीतर शुद्ध आत्मस्वरूप का प्राकट्य करे। एक अनगढ़ पत्थर में निहित मनभावन एवं पूजनीय मूरत का प्राकट्य करे। पत्थर में यदि ज्ञान के हथौड़े व श्रद्धा की टाँकी की मार सहते वक्त चरित्र में इतनी कोमलता हो कि वह गुरु ज्ञान व श्रद्धा रूपी टाँकी-हथौड़े की मार सहकर भी टूटे नहीं तभी गुरु द्वारा शिष्य के जीवन की मनभावन मूरत प्रकट हो पाती है। गुरु-समर्पण का महत्त्व यही है कि सिरदे व सरताज बन। अपना 'मैं पना' मिटाकर मुर्शिद बने। अपना तुच्छ 'मैं पन' गुरु-श्रमण-चरण में समर्पित कर उनके सर्वस्व का मालिक बन जाओ। मित्रों! लोहे का टुकड़ा यदि कीचड़ में पड़ा है तो जंग से जर्जर बन बिखर जायेगा। अलमारी में रखो तो भी हवा की आर्द्रता से जंग खा जायेगा। उसी लोहे के टुकड़े को पारस (सद्गुरु-श्रमण) का स्पर्श कराकर एक बार सोना बना दो फिर चाहे उसे कीचड़ में डालो, रेत में दबावो, अलमारी में रखो या खुली वर्षा के नीचे रखो वह जंग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12