Book Title: Shramano evam Shravako ka Parasparik Sambandh
Author(s): Jasraj Chopda
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 10
________________ जिनवाणी 10 जनवरी 2011 जिस तरह श्रावक विनयी, विवेकशील, समर्पित एवं आज्ञाकांक्षी होना चाहिए उसी तरह सच्चे गुरु या सच्चे श्रमण के लक्षण बताते हुए कहा है कि - " आत्मज्ञान तहाँ मुनिपणुं, ते साचागुरु होय । बाकी कुलगुरु कल्पना, आत्मार्थी नहीं जोय ||" यानी श्रमण वही है जो आत्मज्ञान का तथा पंच समिति-तीन गुप्ति एवं पंच महाव्रतों का धारक हो । शेष तो कुलगुरु हो सकते हैं, श्रमण नहीं। गुरु एवं श्रमण के लक्षणों को दिग्दर्शित करते हुए आत्मसिद्धि ग्रन्थ में कहा गया है- “आत्मज्ञान समदर्शिता विचरे उदय प्रयोग, अपूर्ववाणी, परमश्रुत, सद्गुरु लक्षण योग ॥ यानी श्रमण एवं गुरु की योग्यता का धारक वही है जो आत्मज्ञानी हो, समदर्शी हो, जिसकी वाणी धीर-गंभीर हो, जो शास्त्रज्ञान में पारंगत हो एवं उपयोग सहित विचरण - विहार करे वही श्रमण है। सच्चे श्रमण की अगली पहचान बताते हुए कहा है" सव्वे व भूता सुमना भवन्तु ॥" अर्थात् श्रमण या साधु मात्र अपनी आत्मा की ही नहीं, समस्त भव्य जीवों के कल्याण की सोच रखने वाला होता है। योगवाशिष्ठ में कहा है कि गुरु कितना ही लब्धिनिष्ठ एवं ज्ञानी हो, उसका ज्ञान श्रावकों के व शिष्यों के जीवन के तिमिर का हरण कर उसे ज्ञान रश्मियों से आलोकित करने के लिए होता है, उस ज्ञानलब्धि से किसी को शाप देकर भस्म करने के लिए नहीं । 246 यह आवश्यक नहीं है कि श्रमण एवं श्रावक का पारस्परिक व्यवहार सदैव मृदु ही हो। कई बार ऐसी परिस्थिति आती है कि गुरु को उपालंभ भी देना पड़ता है, पर ऐसा होता है श्रावक-श्राविका के हित दृष्टिगत रखकर ही । महासती चन्दनबाला का एक उपालंभ महासती मृगावती के कैवल्य प्राप्ति का कारण बन गया। तपस्वी संत के रोज भिक्षा लाने व भिक्षा में बासीभोजन मिलने पर गुरु द्वारा उपालम्भ दे पात्र में थूकना भी कुडगुरु के केवलज्ञान-प्राप्ति का आधार बन गया । देवमाया रूप साधु की फटकार एवं प्रताड़ना ही सेवाभावी नंदीषेण मुनि के जीवन को केवलज्ञान के आलोक से आलोकित कर गई। इसी तरह गुरु का एक वाक्य या एक वचन या सूत्र भी शिष्य को कल्याणमार्ग पर अग्रेसित कर देता है। पांच माह तेरह दिन में 1141 हत्याएँ करने वाला अर्जुनमालाकार प्रभु महावीर के एक सूत्र “तितिक्खं परमं नच्चा” अर्थात् तितिक्षा यानी सहन करने को परम धर्म जानकर एवं उसका पालन कर मात्र छः माह की अल्प अवधि में प्रभु महावीर से पहले मोक्षगामी बन गया । ज्ञानान्तराय से ग्रसित मुनि को गुरु ने एक सूत्र दिया ' मा रुसमा तुस' यानी न तूं रुष्ट हो एवं न ही तुष्ट हो । उसे भी शिष्य याद नहीं रख पाया व 'मा रुस व मा तुस' को 'मास - तुस' के रूप में याद रख पाया एवं जीवन भर उड़द के छिलके की कालिख हटने पर श्वेत उड़द पाया जाता है इसी सूत्र पर ध्यान केन्द्रित कर केवलज्ञान प्राप्त कर गया । वे श्रावक जिनके परिवार से कोई पुरुष अथवा स्त्री दीक्षित हुए हैं, उन्हें चाहिए कि उनके साधुत्व ग्रहण करने के पश्चात् उनकी एकान्त में सेवा न करें न कभी घरेलू समस्याओं या सम्बन्धों के सम्बन्ध में उनसे बात करें, क्योंकि छद्मस्थ होने से साधु ऐसे संसर्ग से अथवा इस तरह की सूचनाओं से राग-द्वेष या मोह से ग्रसित हो सकते हैं। वे सेवा अवश्य करें, पर अन्य साधुओं की उपस्थिति में सेवा करें जिससे श्रमण का मोहभाव जागृत न हो पावे। यह सावधानी हर वीर परिवार जिससे दीक्षा हुई है, उन्हें बरतनी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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