Book Title: Shraman Sanskruti ki Vaidik Sanskruti ko Den
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

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Page 3
________________ १. विदित है कि श्रमणसंस्कृतिमें हिंसाको कहीं स्थान नहीं है। अहिंसाकी ही सर्वत्र प्रतिष्ठा है । न केवल क्रियामें, अपितु वाणी और मानसमें भी अहिंसाकी अनिवार्यता प्रतिपादित है । आचार्य समन्तभद्रने इसीसे अहिंसाको जगत् विदित 'परम ब्रह्म' निरूपित किया है-'अहिंसा भूतानां जगति विवितं ब्रह्म परमम्,' इस अहिंसाका सर्वप्रथम विचार और आचार युगके आदि में ऋषभदेवके द्वारा प्रकट हुआ। वही अहिंसाका विचार और आचार परम्परया मध्यवर्ती तीर्थंकरों द्वारा नेमिनाथको प्राप्त हुआ। उनसे पार्श्वनाथको और पार्श्वनाथसे तीर्थंकर महावीरको मिला। इसीसे उनके शासनको स्वामी समन्तभद्रने दया, समाधि, दम और त्यागसे ओतप्रोत बतलाया है-'दया-बम-त्याग-समाधिनिष्ठं ।' इससे यह सहजमें समझा जा सकता है कि वैदिक संस्कृतिमें अहिंसाकी उपलब्धि श्रमण-संस्कृतिकी देन है, अहिंसामूलक आचारविचार उसीका है । २. श्रमणसंस्कृतिकी दूसरी देन यह है कि उसने वेदके स्थानमें पुरुषविशेषका महत्त्व स्थापित किया और उसके अनुभवको प्रतिष्ठित किया। उसने बतलाया कि पुरुषविशेष अकलंक अर्थात् ईश्वर हो सकता है-दोषावरणयोर्हानिनिश्शेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः । अतएव इस संस्कृतिमें पुरुषविशेषका महत्त्व बढ़ाया गया और उन पुरुषविशेषों-तीर्थंकरोंकी पूजा-उपासना प्रचलित की गयी तथा उनकी उपासनार्थ उपासनामन्दिरों एवं तीर्थोंका निर्माण हुआ। इसका इतना प्रभाव पड़ा कि अपौरुषेय वेदके अनुयायियोंमें ही कितने ही वेदको ईश्वरकृत मानने लगे और राम, कृष्ण, शिव, विष्णु जैसे पुरुषोंको ईश्वरका अवतार स्वीकार कर उनकी उपासना करने लगे । फलतः वैदिक संस्कृतिमें भी उनकी उपासनाके लिए अनेकों सुन्दर मन्दिरोंका निर्माण हआ तथा तीर्थ भी बने । ३. निःसन्देह वैदिक संस्कृति जहाँ क्रियाप्रधान है, तत्त्वज्ञान उसके लिए गौण है वहाँ श्रमणसंस्कृति तत्त्वज्ञानप्रधान है और क्रिया उसके लिए गौण है। यह भी प्रकट है कि यह संस्कृति क्षत्रियोंकी संस्कृति है, जो उनकी आत्मविद्यासे निसृत हुई। सभी तीर्थङ्कर क्षत्रिय थे। अतः वैदिक संस्कृतिमें जो आत्मविद्याका विचार उपनिषदोंके रूपमें आया और जिसने वेदान्त (वेदोंके अन्त) का प्रचार किया वह निश्चय ही श्रमण (तीर्थंकर) संस्कृतिका स्पष्ट प्रभाव है। और इसलिए वैदिक संस्कृतिको आत्मविद्याकी देन भी श्रमण संस्कृतिकी विशिष्ट एवं अनुपम देन है। ४. वेदों में स्वर्गसे उत्तम अन्य स्थान नहीं है । अत: वैदिक संस्कृतिमें यज्ञादि करनेवालेको स्वर्गप्राप्तिका निर्देश है । इसके विपरीत श्रमण संस्कृतिमें स्वर्गको सुखका सर्वोच्च और शाश्वत स्थान न मानकर मोक्षको माना गया है। स्वर्ग एक प्रकारका संसार ही है, जहाँसे मनुष्यको वापिस आना पड़ता है। परन्तु मोक्ष शाश्वत और स्वाभाविक सुखका स्थान है । उसे प्राप्त कर लेने पर मनुष्य मुक्तसिद्ध परमात्मा हो जाता है और बहाँसे उसे लौटकर आना नहीं पड़ता। इस प्रकार मोक्ष या निःश्रेयसको मान्यता श्रमण संस्कृतिकी है, जिसे उत्तरकालमें वैदिक संस्कृतिमें मी अपना लिया गया है। ५. श्रमणसंस्कृतिमें आत्माको उपादेय और शरीर, इन्द्रिय तथा भोगोंको हेय बतलाया गया है। संसार-बन्धनसे मुक्ति पाने के लिए दया (अहिंसा), दम (इन्द्रिय-निग्रह), त्याग (अपरिग्रह) और समाधि १. युक्त्यनु० का० ६। २. देवागम का०४। -१९८ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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