Book Title: Shraman Kaun
Author(s): Pannalal Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ जो श्रमण अन्य द्रव्यों को पाकर यदि मोहित होता है, उनमें अहंभाव करता है, राग करता है अथवा द्वेष करता है, तो वह अज्ञानी है तथा विविध प्रकार के कर्मों से बद्ध होता रहता है। इसके विपरीत जो बाह्य द्रव्यों में न मोह करता है, न राग करता है और न द्वेष करता है, वह निश्चित ही विविध कर्मों का क्षय करता है। मुनियों का चारित्र निर्दोष रहे—इस उद्देश्य से कुन्दकुन्द स्वामी ने 'भावपाहुड' में उन्हें इतनी सुन्दर देशना दी है कि उसका अच्छी तरह मनन किया जाये तो चारित्र में दोष का अंश भी नहीं रह सकेगा। छठवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक की भूमिका मुनि की भूमिका कहलाती है। इसके आगे की भूमिका में रहने वाले अर्हन्त, देव कहलाते हैं / सिद्ध परमेष्ठी का समावेश भी देव में ही होता है। गुरु की भूमिका में साधु परमेष्ठी, आचार्य-उपाध्याय और साधु इन तीन भेदों में विभक्त रहते हैं / जो साधु संघ के स्वामी होते हैं, नवीन शिष्यों को दीक्षा देते हैं और संघस्थ साधुओं को प्रायश्चित्त आदि देते हैं वे आचार्य कहलाते हैं / संघ में जो पठन-पाठन का काम करते हैं वे उपाध्याय कहलाते हैं, तथा जो आत्म-साधना में लीन रहते हैं वे साधु कहलाते हैं / इन साधुओं के ऋषि, मुनि, यति और अनगार के भेद से चार भेद होते हैं / इन्हीं के पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक इस प्रकार पांच भेद होते हैं। इनमें स्नातक मुनि-तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान-बर्ती होने से 'देव' संज्ञा से व्यवहृत होते हैं। दूसरी शैली से मुनियों के आचार्य-उपाध्याय, तपस्वी शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ के भेद से दश भेद होते हैं। इन मुनियों में कितने ही मुनि शुद्धोपयोगी और कितने ही शुभोपयोगी होते हैं / अशुभोपयोगी मानव मुनिसंज्ञा के योग्य ही नहीं हैं / शिष्य-संग्रह, ग्रन्थ-रचना, अर्हद्भक्ति, तीर्थवन्दना तथा तीर्थ-प्रवर्तन की भावना शुभोपयोगी मुनियों के होती है और उपशम श्रेणी अथवा क्षपक श्रेणी में आरूढ़ मुनि शुद्धोपयोगी कहलाते हैं / ये सब प्रकार के विकल्पों से निवृत्त हो शुद्ध आत्म-स्वरूप में लीन रहते हैं / मुनियों का अधिकांश काल शुभोपयोग में व्यतीत होता है / उस शुभोपयोग के काल में वे शुभ कर्मों का बन्ध करते हैं। उपशम श्रेणी में आरूढ़ मुनि ग्यारहवें गुण-स्थान से च्युत होकर नियम से नीचे आता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि मुनि चतुर्थ गुणस्थान से नीचे नहीं आ पाता, परन्तु उपशम सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व गुणस्थान तक में आ सकता है और दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण कर सकता है / यह उपशम श्रेणी चार बार से अधिक नहीं होती। पांचवीं बार नियम से क्षपक श्रेणी प्राप्त कर जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है / क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ मुनि नीचे नहीं आता किन्तु दशम गुणस्थान के अन्त में मोहकर्म का क्षय कर बारहवें गुणस्थान में पहुंचता है और वहां अन्तर्मुहूर्त में शुक्ल ध्यान के द्वितीय पाये के द्वारा शेष घातिया कर्मों का क्षय कर केवल-ज्ञानी बन जाता है / यदि आयु के निषेक समाप्त हैं तो अन्तर्मुहूर्त में ही समस्त कर्मों का क्षय कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है, और आयु के निषेक शेष हैं तो अधिक से अधिक देशोनकोटी वर्ष तक केवली-अवस्था में विहार कर मोक्ष प्राप्त करता है। भावलिंगी मुनि-अवस्था 32 बार से अधिक नहीं होती। बत्तीसवीं बार के मुनिपद से वह नियम से निर्वाण-धाम को प्राप्त करता है। इस प्रकार मोक्ष-प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र की पूर्णता अनिवार्य कारण हैं / अतः हे मुमुक्षुजनो! इनके प्राप्त करने का निरन्तर पुरुषार्थ करो। सच्चा पुरुषार्थ यही है / सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का धारक व्यक्ति ही श्रमण कहलाता है। मोक्ष-मार्ग में इसी का श्रम श्लाघनीय एवं सफल होता है। अहिंसा चारित्र जह ते ण पियं दुक्खं तहेव तेसि पि जाण जीवाणं। एवं णच्चा अप्पोवमिओ जीवेसु होदि सदा // तेलोक्क-जीविदादो वरेहि एक्कदरगं ति देवेहि / भणिदो को तेलोक्कं वरिज्ज संजीविदं मुच्चा // भगवान् श्री जिनेन्द्रदेव कहते हैं, हे भव्य, जिस प्रकार तुझे दुःख प्रिय नहीं है, उसी प्रकार अन्य जीवों को भी वह प्रिय नहीं है— ऐसा जानो। इस समझदारी के साथ अन्य जीवों के प्रति वैसा ही हित भाव से व्यवहार करो जिस प्रकार तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे प्रति करें। एक ओर त्रैलोक्य की सम्पदा और दूसरी ओर जीवन-इन दोनों में से किसी एक को चुनकर ले लो--ऐसा देवों द्वारा कहे जाने पर भी कौन ऐसा होगा जो जीवन को छोड़कर त्रिलोक का वरण करेगा? (भगवती आराधना, 783,788) - आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4