Book Title: Shraman Kaun Author(s): Pannalal Jain Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 1
________________ श्रमण कौन ? डॉ. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य 'समयसार' के मोक्षाधिकार में कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि जिस प्रकार बन्धन में पड़ा व्यक्ति यद्यपि यह जानता है कि मैं बन्धन में पड़ा हूं, अमुक कारण से बन्धन में पड़ा हूं और बन्धन तीव्र, मध्यम या हीन अनुभाग वाला है, तथापि जब तक वह छेनी और हथौड़े के द्वारा उस बन्धन को तोड़ने का पुरुषार्थ नहीं करता, तब तक बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो मानव अपने बन्धन के कारणों तथा उनकी तीव्र, मध्यम और हीन अनुभाग शक्तियों को जानता है, तथापि जब तक बन्धन को पूरुषार्थ द्वारा नष्ट नहीं करता, तब तक बन्धन से रहित नहीं हो सकता । तात्पर्य यह कि सम्यक्चारित्र के बिना, मात्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के होने पर भी, यह जीव तेंतीस सागर के विपुल काल तक इसी संसार में पड़ा रहता है । सर्वार्थसिद्धि का अहमिन्द्र अपना तेंतीस सागर का सुदीर्घ काल अपुनरुक्त तत्त्वचर्चाओं में व्यतीत करता है, पर गुण-स्थानों की भूमिका में चतुर्थ गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ पाता। वह सामान्यतया ४१ प्रकृतियों का ही संवर कर पाता है, अधिक का नहीं, परन्तु सम्यक्चारित्र के प्रकट होते ही सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य रूप से अन्तर्मुहूर्त में ही समस्त कर्मों का क्षय कर निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। सम्यक्चारित्र की महिमा वचनागोचर है। सम्यग्दर्शन, धर्मरूप वृक्ष का मूल है, तो सम्यक्चारित्र वह शाखा है जिसमें मोक्ष-रूपी फल लगता है । मोक्षमार्ग के प्रकरण में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-तीनों ही यथास्थान अपनाअपना महत्त्व रखते हैं । इनमें से एक की भी कमी होने पर कार्य-सिद्धि नहीं हो सकती। सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक ही होता है। इनके बिना होने वाला चारित्र, जिनागम में मिथ्याचारित्र कहा गया है। सम्यक्त्व के बिना शुभोपयोग की भूमिका भी इस जीव को मोक्ष-मार्ग में अग्रसर नहीं होने देती। कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है-- चत्ता पावारंभं समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि । ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं ॥७९॥ (ज्ञानाधिकार : प्रवचनसार) पाप के कारणभूत आरम्भ को छोड़कर जो शुभ चर्या में प्रवृत्त है, वह यदि मोहादि को नहीं छोड़ता है तो शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि मोह-मिथ्यात्व गरल को नष्ट किए बिना आत्मतत्त्व का परिचय नहीं हो सकता। मोह-विलय का उपाय बतलाते हुए वहीं कुन्दकुन्द महाराज कहते हैं जो जाणदि अरहतं दव्वत्त-गुणत्त-पज्जयत्तेहि। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ॥८॥ (ज्ञानाधिकार : प्रवचनसार) जो द्रव्य, गुण और पर्याय के द्वारा अर्हन्त को जानता है वह आत्मा को जानता है, और जो आत्मा को जानता है उसका मोह नियम से विलय-विनाश को प्राप्त होता है । अर्हन्त जीव-द्रव्य है और मैं भी जीव-द्रव्य हूं, फिर कहां अन्तर पड़ गया कि ये भगवान हो गए और मैं भक्त ही बना रहा ? अर्हन्त भगवान उस केवल-ज्ञान गुण के धारक हैं जिसमें लोक-अलोक के समस्त पदार्थ प्रत्यक्ष प्रतिफलित हो रहे हैं, और एक मैं हूं जो पीठ के पीछे विद्यमान पदार्थ को भी जानने में असमर्थ हूं। अर्हन्त उस विभाव व्यञ्जन पर्याय के धारक हैं जिसके पश्चात् दूसरी विभाव व्यञ्जन पर्याय होने वाली नहीं है, परन्तु मेरी कितनी पर्याय शेष हैं----यह मैं नहीं जान सकता । इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से जो अर्हन्त को जानता है, उसे अपने और अर्हन्त के बीच में अन्तर डालने वाले मोह का ज्ञान नियम से होता है और मोह का ज्ञान होते ही उसे नष्ट करने का पुरुषार्थ जाग्रत होता है । दर्पण देखने से जिसे अपने मुख पर लगी हुई कालिमा का ज्ञान हो गया है, वह कालिमा को नष्ट करने का पुरुषार्थ नियम से करता है । अर्हन्त-विषयक राग शुभबन्ध का कारण है, परन्तु अर्हन्त-विषयक ज्ञान तो संवर और निर्जरा का ही कारण होता है। मोह के नष्ट होने और आत्म-तत्त्व के प्राप्त कर लेने पर भी यदि यह जीव राग-द्वेष को नहीं छोड़ता है तो वह शुद्ध आत्मा को जैन धर्म एवं आचार ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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