Book Title: Shraman Jivan me Panchachar Author(s): Jashkaran Daga Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 6
________________ 304 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 ( 8 ) कायगुप्ति - संरंभ, समारंभ और आरंभ से काया को निवृत्त करके, उसे तप, संयम, ज्ञानोपार्जन आदि संवर और निर्जरा के कार्यों में लगाना कायगुप्ति है। उपर्युक्त प्रकार से पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ मिलाने से चारित्र के आठ आचार कहे गये हैं। 4. तपाचार कर्मरूपी मैल को नष्ट करने की, जैसी शक्ति तप में है, वैसी किसी अन्य में नहीं है । जैसे अशुद्ध सोना भी अग्नि में तपाने से कुन्दन हो जाता है, वैसे ही तप रूप महाअग्नि में अशुद्ध आत्मा तप कर परमात्मा हो जाता है। तप के बारह आचार हैं। इनमें छह बाह्य तप एवं छह आभ्यन्तर तप हैं बाह्य तप के आचार- (1) अनशन, (2) ऊनोदरी, (3) भिक्षाचर्या, (4) रसपरित्याग, (5) कायाक्लेश और (6) प्रतिसंलीनता (कर्म के आस्रव के कारणों का निरोध करना) । आभ्यन्तर तप के आचार- ( 1 ) प्रायश्चित्त, (2) विनय, (3) वैयावृत्त्य (सेवा), ( 4 ) स्वाध्याय, (5) ध्यान और ( 6 ) कायोत्सर्ग ( छोड़ने योग्य वस्तुओं को छोड़कर काया से ममत्व हटाकर समाधिस्थ होना) । उपर्युक्त प्रकार से तप के कुल बारह तपाचार कहे गए हैं। 5. वीर्याचार अपनी शक्ति का गोपन न करते हुए धर्म कार्यों में यथाशक्ति मन, वचन एवं काया द्वारा प्रवृत्ति करना वीर्याचार है। इसके पाँच प्रकार हैं- ( 1 ) उत्थान, (2) बल, (3) वीर्य, (4) पुरुषकार एवं (5) पराक्रम । धर्माचार्य इन पंचाचारों से स्वयं धर्म में प्रवृत्त होते हैं तथा दूसरों को भी पालन कराते हैं। पंचाचार - पालक - आदर्श आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज वर्तमान युग में रत्नत्रय के उत्कृष्ट आराधक, शासन प्रभावक, समर्थ आचार्य हुए हैं, जो पंचाचार का विशुद्ध पालन स्वयं करते थे व अपने संघ के सभी संतसतियों के द्वारा पालना का विशेष ध्यान रखते थे। आपके सम्पर्क में आने वाले अन्य संत-सतियों को भी इनकी पालना में सावधान रहने की प्रेरणा देते रहते थे। इन पंचाचारों की उत्तम पालना की, उनसे संबधित पाँच प्रेरक घटनाएँ यहाँ दी जा रही हैं। (1) ज्ञानाचार विषयक- आप आगमज्ञान के गहन अध्येता ही नहीं थे, वरन् उसे उन्होंने जीवन में भी धारण किया था। इस कारण आपके जीवन में उत्तम ज्ञान - क्रिया का अद्भुत संगम देखने को मिलता था। एक बार आप टोंक से जयपुर जाते निवाई में विराजे । कुछ अस्वस्थ होने से वहाँ विश्राम करने लगे। तभी द्वारा कुछ जिज्ञासाएँ, आपके साथ रहे सन्तों से पूछी जा रही थी। एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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