Book Title: Shraman Jivan me Gunsthan Arohan
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 3
________________ || 10 जनवरी 2011 || जिनवाणी आदि आगे के गुणस्थानों में भी जा सकते हैं। यह ज्ञातव्य है कि अप्रमत्त संयत गुणस्थान को जिस साधक ने उस भव में प्रथम बार ही प्राप्त किया है तो वह अन्तर्मुहूर्त उस गुणस्थान में रहता ही है। अर्थात् अन्तर्मुहूर्त बीते बिना न तो वह नीचे गिरता है, न ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता है और न ही मरण को प्राप्त होता है। किन्तु उस भव में यदि दूसरी-तीसरी बार अप्रमत्त संयत गुणस्थान प्राप्त किया है तो वह एक समय रहकर भी मरण को प्राप्त हो सकता है। यह नियम है कि सातवें गुणस्थान में मरण को प्राप्त होने वाले साधक आराधक होते हैं। वेवैमानिक देवलोकों में ही उत्पन्न होते हैं तथा अधिकतम 15 भव करके मोक्ष में चले जाते हैं। सामायिक चारित्र एक भव में पृथक्त्व सौ बार तथा अनेक भव में पृथक्त्व हजार बार आ सकता है। सामायिक चारित्र आठ भवों में ही आता है, इससे अधिक भवों में नहीं। सामायिक चारित्र के इत्वारिक और यावत्कथिक जो भेद किये हैं वे मानव-स्वभावगत विशेषताओं के कारण किये गए हैं। प्रथम तीर्थंकर के साधु सरल और जड़ होते हैं। अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र और जड़ होते हैं, किन्तु मध्य के 22 तीर्थंकरों के तथा महाविदेह क्षेत्र के साधु-साध्वी सरल और प्राज्ञ होते हैं। यही कारण है कि मध्य के 22 तीर्थंकरों के शासनवर्ती एवं महाविदेही साधु-साध्वियों को पुनः महाव्रतारोपण रूप छेदोपस्थापनीय चारित्र की आवश्यकता ही नहीं होती है, इसलिए उनका सामायिक चारित्र यावत्कथिक अर्थात् जीवन पर्यन्त के लिये होता है। सामायिक चारित्र में छठे से लेकर नवें तक चार गुणस्थान होते हैं। छठा-सातवाँ गुणस्थान तो उत्कृष्ट आठ भवों से प्राप्त हो सकता है, किन्तु आठवाँ एवं नवाँ गुणस्थान तो तीन भवों से अधिक प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि उपशम श्रेणि अधिकतम 2 भवों में हो सकती है, तथा एक भव में क्षपक श्रेणि। आठवाँ एवं उससे ऊपर के गुणस्थान श्रेणि में ही प्राप्त होते हैं। जो जीव आठवें, नवें गुणस्थान में रहते हुए काल करता है तो वह पाँच अनुत्तर विमान का अधिकारी बनता है। 2. छेदोपस्थापनीय चारित्र- जिस चारित्र में पूर्व दीक्षा-पर्याय का छेदकर पाँच महाव्रतों का आरोपण किया जाता है, उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं। यह चारित्र मात्र भरत-ऐरवत क्षेत्र में प्रथम एवं अन्तिम तीर्थंकर के शासनवर्तीसाधु-साध्वियों में ही पाया जाता है। उसके दो भेद हैं- 1. सातिचार और 2. निरतिचार। 1. पहले व अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में किसी साधु-साध्वी को मूल गुणों की घात होने के कारण दीक्षा पर्याय का छेद दिया जाए या नई दीक्षा दी जाए, उसे सातिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं। इत्वर सामायिक चारित्र वाले शिष्य को जब बड़ी दीक्षा दी जावे तथा एक तीर्थंकर के शासन से दूसरे तीर्थंकर के शासन में आने वाले साधु को जो पाँच महाव्रतों का आरोपण किया जावे, उसे निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं। जैसे पार्श्वनाथ परम्परा के अनेक साधु-साध्वियों ने चातुर्मास धर्म को छोड़कर भगवान महावीर के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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