Book Title: Shraman Jivan me Gunsthan Arohan Author(s): Dharmchand Jain Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 1
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 249 श्रमण - जीवन में गुणस्थान- आरोहण श्री धर्मचन्द जैन श्रमण प्रायः प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आता जाता रहता है, किन्तु जब वह क्षपकश्रेणि करता है तो अन्तर्मुहूर्त में दसवें एवं बारहवें गुणस्थान होकर केवलज्ञानी बन जाता है तथा यदि उपशमश्रेणि करता है तो वह दसवें से ग्यारहवें गुणस्थान में रुककर लौट आता है। श्रमण के गुणस्थानारोहण का प्रामाणिक एवं सारगर्भित विवेचन प्रस्तुत आलेख में द्रष्टव्य है । -सम्पादक श्रमण जीवन श्रमण के अनेक अर्थ हैं। उनमें से एक तो यह कि तप और संयम में जो अपनी पूरी शक्ति लगा रहा है, तपस्वी है, वह श्रमण हैं। दूसरा अर्थ है 'समण' अर्थात् त्रस, स्थावर सब प्रकार के प्राणियों के प्रति जिसके अन्तःकरण में हित की कामना है, वह श्रमण है। तीसरा अर्थ है- 'समन' अर्थात् जो साधक त्रस - स्थावर जीवों पर समभाव रखने वाला होता है, उसके मन में आकुलता-व्याकुलता और विषम भाव नहीं होते, वही श्रमण कहलाने का अधिकारी है, उसको 'समन' भी कहते हैं । साधना करने वाले साधकों को तीन रूपों में रखा जा सकता है- 1. चेतनाशील और स्वस्थ, 2. चेतनाशील किन्तु अस्वस्थ और 3. चेतनाशून्य । प्रथम चेतनाशील साधक वे हैं जो बिना किसी पर की प्रेरणा के कर्त्तव्य-साधन में सदा जागृत रहते हैं। संयम-जीवन में जरा सी भी स्खलना आये तो तुरन्त संभल जाते हैं। कषायों एवं विषयों को जीतने में सदैव सावधान रहते हैं । दूसरे दर्जेके साधक चेतनाशील होकर भी अस्वस्थ होते हैं। आहार-विहार व आचार-विचार में शुद्धि होते हुए भी वे प्रमादवश चक्कर खा जाते हैं। विविध प्रलोभनों में लुब्ध और क्षुब्ध हो जाते हैं। उन्हें उस समय किसी योग्य गुरु द्वारा प्रेरणा की आवश्यकता रहती है। वे शारीरिक, मानसिक कष्टों में घबरा जाते हैं । यदि कोई प्रबुद्ध उस समय उन्हें नहीं संभाले तो वे साधना मार्ग से च्युत हो जाते हैं। Jain Educationa International तीसरे चेतना शून्य साधक वे हैं जो व्रत-नियम की अपेक्षा छोड़कर केवल वेष का वहन करते हैं। छिपे कुकर्माचरण करने पर भी जब कोई कहते हैं- महाराज! संयम नहीं पलता तो वेष क्यों नहीं छोड़ देते? तब कहते हैं, गुरु का दिया बाना भला कैसे छोड़ सकता हूँ। इस प्रकार आध्यात्मिक साधना को छोड़कर आरंभ-परिग्रह का सेवन करने वाले चेतना शून्य साधक हैं। वे मुनिव्रत लेकर भी संसार के मोह-माया जाल में सब कुछ भूल जाते हैं। उनकी साधना में गति नहीं रहने से वे कल्याण मार्ग में सहायक नहीं हो सकते । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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