Book Title: Shiksha ka Uddeshya Author(s): Prabhu Sharma Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 3
________________ 8 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड Doraese. ................................................ को एक करने का प्रयत्त करती है।" शिक्षा आयोग के प्रतिवेदन में भी इसी तथ्य की पुष्टि है-'भारत में विज्ञान तथा आत्मा सम्बन्धी मूल्यों को निकट एवं संगति में लाने का प्रयास करना चाहिए तथा अन्त में जाकर एक ऐसे समाज के उदय के लिए मार्ग तैयार करना चाहिए जो सम्पूर्ण मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा, न कि उसके व्यक्तित्व के किसी खण्ड विशेष की।" मात्र भौतिक उन्नति उस पुष्प की भांति है जो सुन्दर तो है पर गन्धरहित है। उसकी पूर्णता के लिए सुन्दरता एवं गन्ध दोनों ही अनिवार्य हैं। अत: भौतिक और आत्मिक उन्नति क्रमश: पुष्प और उसकी गन्ध की भाँति है जो कि मिलकर ही पूर्णता को प्राप्त होती है। शिक्षा में इसी भौतिक और आत्मिक संतुलन को बनाये रखना है। शस्त्रास्त्रों का निर्माण करने वाले मानव की आत्मा में भी अहिंसा, करुणा और मानव-प्रेम की सरिता प्रवाहित होनी चाहिए और आत्मोन्नति में लीन मानस में भी भौतिक उन्नति के प्रति उपेक्षा का अभाव / डॉ० एस० राधाकृष्णन के शब्दों में--- "विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इस युग में हमें यह याद रखना चाहिए कि जीवन का वृक्ष, लोहे के ढाँचे से बिल्कुल भिन्न है। यदि हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके निर्धनता को दूर करना चाहते हैं तो ललित कलाओं द्वारा मस्तिष्क की हीनता को भी दूर किया जाना चाहिए। केवल भौतिक दरिद्रता ही दुःख का कारण नहीं है। हमें समाज के शक्तिशाली हितों को ही नहीं वरन् मानव-हितों को भी सन्तुष्ट करना चाहिए, सौन्दर्यात्मक और आध्यात्मिक उत्कर्ष पूर्ण मानव के निर्माण में योग देता है।" यह अपेक्षा की जाती रही है कि शिक्षा व्यक्तियों को समाज के रचनात्मक सदस्यों के रूप में तैयार करे। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने भी इसी तथ्य को स्पष्ट किया है-शिक्षा-व्यवस्था को आदतों, दृष्टिकोणों और चरित्र के गुणों के विकास में योग देना पड़ेगा जिससे कि नागरिक जनतन्त्रीय नागरिकता के दायित्वों का योग्यता से निर्वाह कर सकें और उन ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का विरोध कर सकें, जो राष्ट्रीय धर्म निरपेक्ष दृष्टिकोण के विकास में बाधक है। आज छात्र वर्ग में ध्वंसात्मक प्रवृत्ति फैली हुई है। अपने असन्तोष तथा भावी जीवन के प्रति हताशा आदि से प्रेरित हो छात्र ध्वंसात्मक प्रवृत्तियाँ अपनाते हैं। इसका कारण आत्मिक विकास का अभाव, आत्मा की निर्बलता, विवेकहीनता आदि हैं। प्लेटो के अनुसार विवेक का तिरस्कार करने की प्रवृत्ति मनुष्य का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण अभिशाप है। लेकिन भारतीय युवा वर्ग इसी अभिशाप से ग्रस्त है। छात्र विषयगत ज्ञान तो प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् भौतिक ज्ञान तो प्राप्त कर लेते हैं पर आत्मिक उत्थान नहीं कर पाते / क्यों नहीं कर पाते ? क्योंकि उनके पाठ्यक्रम में ऐसा कुछ नहीं है। उनके वातावरण में ऐसा कुछ नही है। इन्जीनियर आदि की शिक्षा का मन एव आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है / मात्र विषयगत ज्ञान प्राप्त करते-करते उसकी भौतिक भूख इतनी बढ़ जाती है कि मानवीयता के मूल्य उसकी कल्पना में भी नहीं आते, 'बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।' यही कारण है कि अच्छी नौकरियाँ नहीं मिल पाती हैं तो असन्तुष्ट छात्रों द्वारा विश्वविद्यालयों की इमारतों पर पत्थर फेंके जाते हैं, शीशे फोड़े जाते हैं, कारें जलाई जाती हैं, बाजार बन्द किये जाते हैं, हड़ताल की जाती हैं। मात्र विषयगत ज्ञान को प्राप्त किये उन छात्रों के मानस में यह तथ्य कैसे उभरे कि बाजार बन्द से उन मजदूरों का क्या होगा जो आज दिन भर बाजार में इधर-उधर माल ढोकर उससे प्राप्त मजदूरी से शाम को पेट भरेंगे, नहीं तो उन्हें भूखा ही सोना पड़ेगा। कुल्फी बेचने वाले की सारी कमाई मारी जायगी। भौतिक उन्नति से आकर्षित हो कार खरीदने की लालसा रखने वाले डाक्टर से कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वह गरीबों से कम फीस ले / आज के युग में व्यक्ति में मानवीय गुणों के होने पर आश्चर्य होता है, नहीं होने पर कोई असामान्य बात नहीं। आज का वातावरण तो भौतिक लोभ के नौ नहीं हजारों द्वारों का पीजरा बना हुआ है जिनमें मानवीय गुणोंरूपी पवन-पक्षी के रहिबे को अचरज है, गये अचंभा कौन' ? मानवीय मूल्यो के समाज से विघटन के अनेक पक्ष हो सकते हैं पर शिक्षा में इन तत्त्वों का समुचित समावेश न होना एक प्रमुख कारण है / इसके अभाव में छात्र यदि विध्वंसात्मक दृष्टिकोण अपनाता है तो उसका कोई दोष नहीं। शिक्षा को डाक्टर की प्रतिमाएं नहीं गढ़नी है उनमें मानव-पीड़ाओं से स्पन्दित आत्मा का भी प्रवेश कराना है। प्रतिभाओं रूपी पुष्पों को मानवीय गुणों रूपी सुगन्ध से युक्त करना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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