Book Title: Shatrunjaya Tirthashtak Author(s): Vinaysagar Publisher: Z_Agarchand_Nahta_Abhinandan_Granth_Part_2_012043.pdf View full book textPage 1
________________ कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यकी अपभ्रंश-भाषामें एक अनुपम रचना शत्रुञ्जयतीर्थाष्टक महोपाध्याय विनयसागर युगप्रधान दादा जिनदत्तसूरि प्रणीत 'गणधरसार्द्धशतक-प्रकरण'के प्रथम पद्यकी व्याख्या करते हुए, युगप्रवरागम श्रीजिनपतिसूरिके शिष्य श्रीसुमतिगणिने, श्रीहेमसूरि प्रणीत निम्नाङ्कित स्तोत्र उद्धृत किया है। सुमतिगणि कृत 'वृद्धवृत्ति'का रचनाकाल विक्रम संवत् १२९५ होनेसे इस स्तोत्रका रचनाकाल १२-१३वीं शताब्दी निश्चित है । अष्टककी अन्तिम पंक्तिमें 'हेमसूरिहि' उल्लेख है। १२वीं शतीमें हेमचन्द्रसूरि नामक दो आचार्य हुए है-१. मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसरि और २. पूर्णतल्लगच्छीय कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि। ये दोनों समकालीन आचार्य थे और दोनों ही गुर्जराधिपति सिद्धराज जयसिंहके मान्य एवं पूज्य रहे हैं। __मलधारगच्छीय हेमचन्द्रसूरिकी देश्यभाषाकी रचनाएँ प्राप्त नहीं है। कलिकाल सर्वज्ञकी 'देशीनाममाला' प्राकृत-व्याकरण आदि साहित्यमें अपभ्रंश कृतियोंका प्रयोग होनेसे प्रस्तुत अष्टकके प्रणेता इन्हींको माना जा सकता है। इस अष्टकमें सौराष्ट्र प्रदेश स्थित शत्रुञ्जय (सिद्धाचल) तीर्थाधिराजकी महिमाका वर्णन किया गया है। इसकी भाषा अपभ्रंश है और देश्यछन्द-षट्पदी में इसकी रचना हुई है। अद्यावधि अज्ञात एवं भाषाविज्ञानकी दृष्टिसे इसका महत्त्व होनेसे इसे अविकल रूपमें यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। सं० १२०० में रचित कृतिमें उद्धृत होनेसे इसका प्राचीन मार्मिक पाठ सुरक्षित रक्खा है यह भी विशेष रूपसे उल्लेखनीय है। १८८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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