Book Title: Shatrunjaya Mahatmya
Author(s): Dhaneshwarmuni
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 12
________________ Shun Mahalin Aradhana Kendra Acharya Shin Kalassagarson Gyantande शत्रुजर स प्राप्त संपूर्णसंपढ़ः ॥ तदेव ते क्षितीह । ततो दुर्गतिगामिनः ॥ ७० ॥ कदर्शनां विधायैवं । माहाण लोके कोके शशीव सः॥ कयेन कीसदेहोऽय । धर्म मित्रमिवास्मरत् ॥ १ ॥ सर्वतोऽस्ति सुखं यावत् । तावत् किंचित्र मन्यते ॥ प्राप्ते कीनाशपाशे तु । धर्म स्मरति मूढधीः॥ ॥७२॥ अन्यदा स सन्नासीनः । सर्वतः करसेवितः॥ यावदस्ति परशेह-चिंतान्निः क्लिटमानसः ॥ ७३ ॥ तावन्नस्तः केनापि । कल्पडुमदलस्थितः ॥ मुक्तोऽपतदश्रो दिव्य-श्लोकस्तत्र पुरः स्फुरन् ॥ १४ ॥ ॥ धर्मादधिगतैश्चर्यो । धर्ममेव निहंति यः ॥ कयं शुनायति वी। स स्वामिशेहपातकी॥ ५ ॥ इत्यम पत्रलिखितं । श्लोकं सोऽवाचयन्मुदा ॥ अव व्य तदर्थं च । चेतस्येवमचिंतयत् ॥ ७६ ॥ अहो मया महामोह-मायाधारेण चेतसा ॥ चरितं पापमाकष्टं । स्पष्टं फलितमप्यदः ॥ ७७ ॥ मयामिषवदासाद्य । संपदो म-2 त्स्यवन्मुधा ॥ स्वात्मायं ग्रासलुब्धेन । वः संसृतिजालके ॥ ७ ॥ न्यायमार्गानुगोनूपो। ॥७॥ नवेनवयुगेऽन्नयः ॥ असन्मार्गरतो लोके । कुलराज्यवयाय सः ॥ ७ ॥ चिंतातुरश्चचालेति । मुक्त्वा राज्यं नृपो निशि ॥ मुमूर्षुर्मूर्खमुख्योऽसा-वब्धिपातापिया ॥ ७० ॥ या For Private And Personal use only

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