Book Title: Shatjivnikay me Tras evam Sthavar ke Vargikaran ki Samasya Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf View full book textPage 5
________________ २०० की टीका में, उसके पश्चात जीव स्थान प्रकृति समुनकीर्तन (1/9-1/287 की टीका में तथा पंचम खण्ड के प्रकृति अनुयोगदार के नाम-कर्म की प्रकृतियों ( 5/5/101 की चर्चा में इन तीनों ही स्थलों पर स्थावर और उसके वर्गीकरण का आधार गतिशीलता को न मानकर स्थावर नामकर्म एवं जरा नामकर्म का उदय बनाया गया है। इस सम्बन्ध में चर्चा प्रारम्भ करत हा यह कहा गया है कि सामान्यतया स्थित रहना अर्थान् ठहरना ही जिनका स्वभाव है उन्हें ही स्थावर कहा जाता है, किन्तु प्रस्तुत आगम में इस व्याख्या के अनुगार स्थावर्ग का स्वप क्या नहीं कहा गया ? इसका समाधान देते हुए कहा गया है कि जो एक स्थान पर ही स्थित रहे वन स्थावर ऐसा लक्षण मानने पर वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीवों का जा सामान्यतया स्थावर माने जाते हैं, उस मानना होगा, क्योंकि इन जीवों की एक स्थान से दृगरे स्थान में गति देखी जाती है। धवलाकार एक स्थान पर अवस्थित रहे वर स्थावर हग त्यारया को इसलिए मान्य नहीं करता है, क्योंकि ऐसी व्याख्या में वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीवों को स्थावर नहीं माना जा सकता, क्योंकि इनमें गतिशीलता देखी जाती है। इसी कठिनाई से बचने के लिए धवलाकार ने ग्यावर की या व्याख्या प्रस्तुत की कि जिन जीवों में स्थावर नामकर्म का उदय हे वे स्थावर है ? न कि वे स्थावर है, जो एक स्थान पर अवस्थित रहते हैं। इस प्रकार स्थावर की नई व्याख्या के द्वारा धवलाकार ने न केवल पृथ्वी, अप. वायु. अग्नि और वनस्पति इन पाँचों को स्थावर मानने की सर्वसामान्य अवधारणा की पुष्टि की. अपितु उन अवधारणाओं का संकेत और खण्डन भी कर दिया जो गतिशीलता के कारण वायु, अग्नि आदि को स्थावर न मानकर त्रस मान रही थी। इस प्रकार 'उसने दानी धाराओं में समन्वय किया है। बस स्थावर के वर्गीकरण के ऐतिहासिक क्रम की दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि सर्वप्रथम आचागंग में पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति इन चार को स्थावर और वायुकाय एवं उसकाय इन दो को ग्रस माना गया होगा। उसके पश्चात उल्लराध्यान में पथ्वी. जल और वनस्यति इन तीन को स्थावर और अग्नि, वायु और दीन्द्रियादि को तय माना गया है। अग्नि जो आचारांग में स्थावर वर्ग में थी वह उत्तराध्ययन में त्रय वर्ग में मान ली गई। वायु में तो स्पष्ट स्प से गतिशलता थी, किन्तु अग्नि में गतिशीलता उतनी स्पष्ट नहीं थी। अनः आचासंग में मात्र वायु को ही त्रस (गतिशील ) माना गया था। किन्तु अग्नि की ज्वलर प्रक्रिया में जो क्रमिक गति देखी जाती है, उसके आधार पर अग्नि को स ( गतिशील) मानने का विचार आया और उत्तराध्ययन में वायु के साथ-साथ अग्नि को भी वर माना गया । उत्तगध्ययन की अग्नि और वायु की उस मानने की अवधारणा की ही पुष्टि उमास्वाति के तत्वार्थसूत्रमुल उसके स्वोपज्ञ भाष्य तथा कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय में भी की गई है। दिगम्बर परम्परा की स्थावगें और उस के वर्गीकरण की अवधारणा से अलग हटकर कुन्दकुन्द द्वारा उत्तगध्ययन और तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर पाठ की पुष्टि इस तथ्य को ही सिद्ध करती है कि कुछ आगमिका मान्यताओ के सन्दर्भ में कुन्दकुन्द श्वेताम्बर परम्परा के उत्तगध्ययन आदि प्राचीन आगमा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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