Book Title: Shatjivnikay me Tras evam Sthavar ke Vargikaran ki Samasya
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्जीवनिकाय में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण की समस्या - प्रो. सागरमल जैन पदजीनिकाय की अवधारणा जैनधर्म-दर्शन की प्राचीनतम अवधारणा है। इसके उन्नख हमं प्राचीनतम जैन आगमिक ग्रन्था यथा -- आचारांग', ऋषिभाषित, उत्तगध्ययन दशवकालिक आदि में उपलब्ध होते हैं। यह गुस्पष्ट तव्य है कि निर्गन्ध परम्पग में प्राचीनकाल से पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि का जीवन युक्त माना जाता रहा है। यद्यपि वनस्पति और द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों में जीवन की सत्ता ता सभी मानते हैं किन्नु पृथ्वी जल, अग्नि और वायु भी सजीव हैं .-- यह अवधारणा जैना की अपनी विशिष्ट अवधारणा है। यहाँ हमे यह भी स्मग्ण रखना चाहिए कि पृथ्वी, जल, वायु आदि में सूक्ष्म जीवों की उपस्थिति को स्वीकार करना एक अलग तथ्य है और पृथ्वी, जल आदि को स्वतः सजीव मानना एक अन्य अवधारणा है। जैन परम्परा केवल इतना ही नहीं मानती है कि पृथ्वी, जल आदि मे जीव होत है अपितु वह यह भी मानती है कि ये स्वयं भी जीवन-युक्त या सजीव है। इस सन्दर्भ में आचागंग में स्पष्ट रूप से उल्लेख मिलता है कि पृथ्वी, जल, वायु आदि के आश्रित होकर जो जीव रहत हैं, व पथ्वीकायिक, अपकायिक आदि जीवां से भिन्न हैं। यद्यपि पृथ्वीकायिक, अपकायिक जवा की हिंसा होने पर उनकी हिंसा भी अपरिहार्य रूप से होती है। आचारांग क प्रथम अध्ययन के द्वितीय से सप्तम उदशक तक प्रत्येक उददशक में पृथ्वी आदि पटजीवनिकायां की हिंमा के स्वम्प, कारण और साधन अर्थात शस्त्र की चर्चा हमें उपलब्ध होती है। आचागंग अपिभासित, उल्लराध्ययन, दशकालिक आदि में पदजीवनिकाय के अन्तर्गत पृथ्वी, अप, अग्नि. वायु, वनस्पति और उस -- य जीवों के क. प्रकार मान गये है, किन्तु इन पदजीवनिकायों में कौन स है और कौन ग्थावर है ? इस प्रश्न का लकर प्राचीनकाल से ही विभिन्न अवधारणाएँ जैन परम्परा में उपलब्ध होती है। यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच को सामान्यतया स्थावर माना जाता है। पंचस्थावरों की यह अवधारणा अब सर्व स्वीकृत है। दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ का जा पाठ प्रचलित है उसमें ता पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति-- इन पाँचों को स्पप्ट म्प र स्थावर कहा गया है। किन्तु प्राचीन श्वेताम्बर मान्य आगम आचारांग, उत्तराध्ययन आदि की तथा तत्त्वार्थसत्र के श्वताम्बर सम्मत पाठ और तत्त्वार्थभाष्य की स्थिति कुछ भिन्न है। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी कुन्दकुन्द के ग्रन्थ पंचास्तिकाय की स्थिति भी पंचस्थावगे की प्रचलित सामान्य अवधारणा से कुछ भिन्न ही प्रतीत होती है। यापनीय ग्रन्थ पटखण्डागम की धवला टीका में इन दोना के समन्वय का प्रयत्न हुआ है। म और ज्यावर के वर्गीकरण को लेकर जैन परम्परा के इन प्राचीन स्तर क आगमिक 13 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थों में किस प्रकार का मतभेद रहा हुआ है, इसका स्पद्रीकरण करना ही प्रस्तुत निबन्ध का मुख्य उद्देश्य है। 1. आधारांग आचारांग में पदजीवनिकाय में कौन सा है और कौन स्थावर है ? इसका कोई स्पष्टत वर्गीकरण उल्लेखित नहीं है। उसके प्रथम श्रुत रकन के प्रथम अध्ययन में जिस कम से पदजीवनिकाय का विवरण प्रस्तुत किया गया है. उसे देखकर लगता है कि जहा प्रयकार पानी, अप. अग्नि और वनस्पति इन चार को स्पष्ट रूप से स्थावर के अन्तर्गत वर्गीकृत करता होगा. जबकि बस और तायुकायिक जीवों को वह स्थावर के अन्तर्गत नहीं मानता होगा, क्योकि उसके प्रथम अध्ययन के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम इन वार उददशको में क्रमशः पृथ्वी, आप. अग्नि और वनस्पति -- इन चार जीवनिकायों की हिंसा का विवरण प्रस्तुत किया गया है। उसके पश्चात् पष्ठ अध्ययन में सकाय की और रातम अध्ययन में वायुकायिक जीवा की हिंसा का उल्लेख किया है। इसका फलितार्थ यही है कि आवाराग के अनुसार वायुकायिक जीव स्थावर न होकर ऋय है। यदि आवारांगकार को वायुकायिक जीवों को स्थावर मानना हाता तो वह उनका उल्लख सकाय के पूर्व करता। इस प्रकार आचागा। में पृथ्वी. अप, अग्नि और वनस्पति में चार स्थावर और वायु तथा ब्रमकाय में दो वम जीव माने गये हैं - -- या अनुमान किया जा सकता है।' यद्यपि आचागंग के प्रथम श्रुतरकन्ध में ही एक गन्तर्म जमा भी है, जिसके आधार पर उसकाय को छोड़कर शेप पाँचों को स्थावर माना जा सकता है क्योकि वहाँ पर पथ्वी, वायु, अप, अग्नि और वनस्पति का उल्लेख करके उसके पश्चात् ब्रम का उल्लेख किया गया है। 2. ऋषिभाषित जहा तक पिभापित का प्रश्न है, उसमें मात्र एक स्थल पर टिजीवनिकाय का उल्लेख है । उस शब्द का उल्लेख मी है, किन्तु षटजीवनिकाय में कौन स है और स्थावर ने एमी चर्चा उसम नहीं है। 3. उत्तराध्ययन आचारांग से जब हम उल्लराध्ययन की ओर आते हैं तो यह पाते है कि उसके 26वें एवं 36वें अध्यायों में पदजीवनिकाय का उल्लेख उपलब्ध होना है। 26वें अध्याय में यद्यपि स्पष्ट स्प से त्रय और स्थावर के वर्गीकरण की चर्चा तो नहीं की गई है, किन्तु उसमें जिस क्रम से पटजीवनिकायों के नामों का निम्पण हुआ है उससे यही फलित होता है कि पृथ्वी, अप (उदक ), अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच स्थावर है और छठा त्रसकाय ही त्रस है, किन्तु उत्तराध्ययन के 36वें अध्याय की स्थिति इससे भिन्न है, एक तो उसमें सर्वप्रथम षट्जीवनिकाय को त्रस और स्थावर -- ऐसे दो वर्गों में वर्गीकृत किया गया है और दूसरे स्थावर के अन्तर्गत पृथ्वी, अप और वनस्पति को तथा उस के अन्तर्गत अनि, वायु और त्रसजीवनिकाय को रखा गया है। इस प्रकार यद्यपि उत्तराध्ययन के 36वें अध्याय से आचारांग की वायु को Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १६८. सकाविक मानने की अवधारणा की पुष्टि होती है। किन्तु जहाँ तक अग्निकाय का प्रश्न है, उसे जहाँ आचारांग के अनुसार स्थावर निकाय के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सका है, वहाँ उत्तराध्ययन में उसे स्पष्ट रूप से त्रसनिकाय के अन्तर्गत वर्गीकृत किया गया है। इस प्रकार दोनों में आंशिक मतभेद भी परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययन का यह दृष्टिकोण तत्त्वार्थसूत्र (भाष्यमान्य मूलपाठ ) में और तत्त्वार्थभाष्य में भी स्वीकृत किया गया है। इससे ऐसा लगता है कि निर्गन्थ परम्परा में प्राचीनकाल में यही दृष्टिकोण विशेष रूप से मान्य रहा होगा। 4. दशवकालिक जहाँ तक दशवकालिक का प्रश्न है, उसका चतुर्थ अध्याय तो षट्जीवनिकाय के नाम से ही जाना जाता है। उसमें त्रस एवं स्थावर का स्पष्टतया वर्गीकरण तो नहीं किया गया है, किन्तु जिस क्रम में उनका प्रस्तुतिकरण हुआ है, उससे यह धारणा बनाई जा सकती है कि दशवैकालिक पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच को स्थावर ही मानता होगा। षट्जीवनिकाय के क्रम को लेकर दशवकालिक की स्थिति उत्तराध्ययन के 26वें अध्ययन के समान है, किन्तु आचारांग से तथा उत्तराध्ययन के 36वें अध्याय से भिन्न है। 5. जीवाभिगम उपांग साहित्य में प्रज्ञापना में जीवों के प्रकारों की चर्चा ऐन्द्रिक आधारों पर की गई, उस और स्थावर के आधार पर नहीं। जीवों का त्रस और स्थावर का वर्गीकरण जीवाभिगमसत्र में मिलता है। उसमें स्पष्ट रूप से पृथ्वी, अप (जल) और वनस्पति को स्थावर तथा अग्नि, वायु एवं द्रीन्द्रियादि को उस कहा गया है। इस दृष्टि से जीवाभिगम और उत्तराध्ययन का दृष्टिकोण समान है। जीवाभिगम की टीका में मलयगिरि ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जो सर्दी-गर्मी के कारण एक स्थान का त्याग करके दूसरे स्थान पर जाते हैं, वे त्रस हैं अथवा जो इच्छापूर्वक उर्व, अध एवं तिर्यक् दिशा में गमन करते हैं, वे उस हैं। उन्होंने लब्धि से तेज ( अग्नि) और वायु को स्थावर, किन्तु गति की अपेक्षा से त्रस कहा है। 6. तत्त्वार्थसूत्र जहाँ तक जैन परम्परा के महत्त्वपूर्ण सूत्र शैली के ग्रन्थ "तत्त्वार्थ" का प्रश्न है, उसके श्वेताम्बर सम्मत मूलपाठ में तथा तत्त्वार्थ के उमारवाति के स्वोपज्ञ भाष्य में पृथ्वी, अप और वनस्पति -- इन तीन को स्थावरनिकाय में और शेष तीन अग्नि, वायु और द्रीन्द्रियादि को सनिकाय में वर्गीकृत किया गया है।12 इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थभाष्य का पाठ उत्तराध्ययन के 36वें अध्याय के दृष्टिकोण के समान ही है। तत्त्वार्थ का यह दृष्टिकोण आचारांग के प्राचीनतम दृष्टिकोण से इस अर्थ में भिन्न है कि इसमें अग्नि को स्पष्ट रूप से उस माना गया है, जब कि आचारांग के अनुसार उस स्थावर वर्ग के अन्तर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है। अब हम दिगम्बर परम्परा की ओर मुड़ते हैं तो उसके द्वारा मान्य तत्त्वार्थसूत्र की Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ स्वार्थसिद्धि टीका के मूल पाठ12 उसकी टीका -- दोनों में पंचस्थावरों की अवधारणा स्पष्ट उल्लेख है। दिगम्बर परम्परा की तत्त्वार्थ की टीकाओं में प्रायः सभी ने पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु, वनस्पति इन पाँच को स्थावर माना है। 7. पंचास्तिकाय कुन्दकुन्द के ग्रन्थ पंचास्तिकाय और पट्खण्डागम की धवला का दृष्टिकोण सवार्थसिद्धि से भिन्न है। कुन्दकुन्द अपने ग्रन्थ पंचास्तिकाय में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पृथ्वी, अप, तेज (अग्नि ), वायु और वनस्पति ये पाँच एकेन्द्रिय जीव हैं। इन एकन्द्रिय जीवों में पृथ्वी, अप (जल) और वनस्पति ये तीन स्थावर शरीर से युक्त है और शेष अनिल और अनल अर्थात वायु और अग्नि स है।13 इस प्रकार पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों में कुन्दकुन्द ने केवल पृथ्वी, अप और वनस्पति इन तीन को ही स्थावर माना था, शेष को वे त्रस मानते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि कुन्दकुन्द का दृष्टिकोण भी तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर मान्य पाठ, तत्त्वार्थभाष्य और प्राचीन आगम उत्तराध्ययन के समान ही है। यद्यपि गाथा क्रमांक 110 में उन्होंने पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति का जिस क्रम से विवरण दिया है वह स और स्थावर जीवों की अपेक्षा से न होकर एकेन्द्रिय एवं द्रीन्द्रिय आदि के वर्गीकरण के आधार पर है। यह गाथा उत्तराध्ययनसूत्र के 26वें अध्याय की गाथा के समान है --- तुलना के रूप में पंचास्तिकाय और उत्तराध्ययन की गाथायें प्रस्तुत हैं। पुढवीआउक्काए, तंऊवाऊ वणस्सइतसाण। पडिलेहणापमत्तो छण्ह पि विराहओ होइ।। -- उत्तराध्ययन, 26/30 पुढवी य उदगमगणी वाउवणप्फदि जीवसंसिदाकाया। देति खलु मोह बहुलं फासं बहुगा वि ते तेसिं।। -- पंधास्तिकाय 110 तसा य थावरा चेव, थावरा तिविहा तहिं । पुढवी आउजीवा य, तहेव य वणस्सई।। तेऊवाऊ य बोदव्या उराला तसा तहा। -- उत्तराध्ययन, 36/68, 69, 107 तित्थावरतणु जोगा अणिलाणल काइया य तेसु तसा मणपरिणाम विरहिदा जीवा एइंदिया गेया -- पंचास्तिकाय 111 षटखण्डागम दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम की धवला टीका में त्रस और स्थावर के वर्गीकरण की इस चर्चा को तीन स्थलों पर उठाया गया है -- सर्वप्रथम सत्परूपणा अयोगदार (1/1/39) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० की टीका में, उसके पश्चात जीव स्थान प्रकृति समुनकीर्तन (1/9-1/287 की टीका में तथा पंचम खण्ड के प्रकृति अनुयोगदार के नाम-कर्म की प्रकृतियों ( 5/5/101 की चर्चा में इन तीनों ही स्थलों पर स्थावर और उसके वर्गीकरण का आधार गतिशीलता को न मानकर स्थावर नामकर्म एवं जरा नामकर्म का उदय बनाया गया है। इस सम्बन्ध में चर्चा प्रारम्भ करत हा यह कहा गया है कि सामान्यतया स्थित रहना अर्थान् ठहरना ही जिनका स्वभाव है उन्हें ही स्थावर कहा जाता है, किन्तु प्रस्तुत आगम में इस व्याख्या के अनुगार स्थावर्ग का स्वप क्या नहीं कहा गया ? इसका समाधान देते हुए कहा गया है कि जो एक स्थान पर ही स्थित रहे वन स्थावर ऐसा लक्षण मानने पर वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीवों का जा सामान्यतया स्थावर माने जाते हैं, उस मानना होगा, क्योंकि इन जीवों की एक स्थान से दृगरे स्थान में गति देखी जाती है। धवलाकार एक स्थान पर अवस्थित रहे वर स्थावर हग त्यारया को इसलिए मान्य नहीं करता है, क्योंकि ऐसी व्याख्या में वायुकायिक, अग्निकायिक और जलकायिक जीवों को स्थावर नहीं माना जा सकता, क्योंकि इनमें गतिशीलता देखी जाती है। इसी कठिनाई से बचने के लिए धवलाकार ने ग्यावर की या व्याख्या प्रस्तुत की कि जिन जीवों में स्थावर नामकर्म का उदय हे वे स्थावर है ? न कि वे स्थावर है, जो एक स्थान पर अवस्थित रहते हैं। इस प्रकार स्थावर की नई व्याख्या के द्वारा धवलाकार ने न केवल पृथ्वी, अप. वायु. अग्नि और वनस्पति इन पाँचों को स्थावर मानने की सर्वसामान्य अवधारणा की पुष्टि की. अपितु उन अवधारणाओं का संकेत और खण्डन भी कर दिया जो गतिशीलता के कारण वायु, अग्नि आदि को स्थावर न मानकर त्रस मान रही थी। इस प्रकार 'उसने दानी धाराओं में समन्वय किया है। बस स्थावर के वर्गीकरण के ऐतिहासिक क्रम की दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि सर्वप्रथम आचागंग में पृथ्वी, जल, अग्नि और वनस्पति इन चार को स्थावर और वायुकाय एवं उसकाय इन दो को ग्रस माना गया होगा। उसके पश्चात उल्लराध्यान में पथ्वी. जल और वनस्यति इन तीन को स्थावर और अग्नि, वायु और दीन्द्रियादि को तय माना गया है। अग्नि जो आचारांग में स्थावर वर्ग में थी वह उत्तराध्ययन में त्रय वर्ग में मान ली गई। वायु में तो स्पष्ट स्प से गतिशलता थी, किन्तु अग्नि में गतिशीलता उतनी स्पष्ट नहीं थी। अनः आचासंग में मात्र वायु को ही त्रस (गतिशील ) माना गया था। किन्तु अग्नि की ज्वलर प्रक्रिया में जो क्रमिक गति देखी जाती है, उसके आधार पर अग्नि को स ( गतिशील) मानने का विचार आया और उत्तराध्ययन में वायु के साथ-साथ अग्नि को भी वर माना गया । उत्तगध्ययन की अग्नि और वायु की उस मानने की अवधारणा की ही पुष्टि उमास्वाति के तत्वार्थसूत्रमुल उसके स्वोपज्ञ भाष्य तथा कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय में भी की गई है। दिगम्बर परम्परा की स्थावगें और उस के वर्गीकरण की अवधारणा से अलग हटकर कुन्दकुन्द द्वारा उत्तगध्ययन और तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर पाठ की पुष्टि इस तथ्य को ही सिद्ध करती है कि कुछ आगमिका मान्यताओ के सन्दर्भ में कुन्दकुन्द श्वेताम्बर परम्परा के उत्तगध्ययन आदि प्राचीन आगमा की Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ मान्यताओं क आंधक निकट है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ एक और उलगध्ययन, उमारवाति के नन्वार्थसूत्र एवं कुन्दकुन्द के पचारितकाय में ग्याट म्प स पटजीवनिकाय में पृथ्वी अप (जल) और गनपति-- ये तीन स्थावर और अग्नि वाद और त्रम : दीन्द्रियादि ) -- तीन स है प्रिया सप्ट उल्लख है। वहीं दूसरी उन्लगध्ययन, दशवकालिक, उमारवाति की प्रशमति एवं कुन्दकुन्द क पचास्तिकाय जय प्राचीन ग्रन्थों में भी कुछ स्थानों पर पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति -- इन एकन्द्रिय जीवों के एक साथ उलाख के पश्चात् त्रम का उल्लेख मिलता है। उनका म के पूर्व माथ-साथ उल्लख ही आगे चलकर सभी एकन्द्रियों का स्थावर मानने की अवधारणा का आधार बना है, क्योंकि द्रीन्द्रिय आदि के लिये तो स्पष्ट रूप से ऋण नाम । जन दीन्दियादि बस कह ही जात ध तो उनके पर्व उल्लेखित सभी एकन्टिय स्थावर है -- यह माना जाने लगा और फिर इनक स्थावर कहे जान का आधार इनका अवस्थित रहने का स्वभाव नहीं मानकर स्थावर नामकर्म का उदय माना गया। किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि प्राचीन आगमा म इनका एक साथ उल्लख इनके एकन्दिय वर्ग के अन्तर्गत होने के कारण किया गया है, न कि स्थावर होने के कारण । प्राचीन आगमों में जहाँ पाँच एकन्द्रिय जीवों का माथ-याथ उल्लख है वहाँ उग जग और ग्थावर का वर्गीकरण नहीं कहा जा सकता है -- अन्यथा एक ही आगम में अन्नविगंध मानना होगा। जो समचित नहीं है। इस समग्या का मूल कारण यह था कि दीन्द्रियादि जीवा को त्रय नाम से अभिहित किया जाना था -- अतः यह माना गया कि द्वीन्द्रियादि से भिन्न सभी एकन्द्रिय स्थावर है। इस चर्चा के आधार पर इतना तो मानना ही होगा कि परवर्तीकाल में त्रय और स्थावर के वर्गीकरण की धारणा म परिवर्तन हुआ है तथा आग चलकर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोना परम्पराओं में पंचरथावर की अवधारणा दृढीभूत हो गई। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जब वायु और अग्नि का वस माना जाता था, तब दीन्द्रयादि उस के लिय उदार ( उगल) उस शब्द का प्रयोग होता था। पहल गतिशीलता की अपक्षा से त्रस और स्थावर का वर्गीकरण होता था और उसमें वायु और अग्नि में गतिशीलता मानकर उन्हें त्रय माना जाता था। वायु की गतिशीलता स्पष्ट थी अतः गर्वप्रथम उस अप कहा गया। बाद में यक्ष्म अवलोकन से ज्ञात हआ कि अग्नि भी ईंधन के महारं धीर-धीरे गति करती हुई फैलती जाती है, अतः उस भी उस कहा गया। जल की गति केवल भूमि के ढलान के कारण होती है स्वतः नहीं, अतः उस पृथ्वी एवं वनस्पति के समान स्थावर ही माना गया। किन्तु वायु और अग्नि में स्वतः गति होने से उन्हें उस माना गया। पुनः जब आगे चलकर जब द्वीन्द्रिय आदि को ही बस और सभी एकेन्द्रिय जीवों का स्थावर मान लिया गया तो -- पूर्व आगमिक वचनां से संगति बैठाने का प्रश्न आया। अतः श्वेताम्बर परम्पग में लब्धि और गति के आधार पर यह संगति बैठाई गई और कहा गया कि लब्धि की अपेक्षा से तो वाय एवं अग्नि स्थावर है, किन्तु गति की अपेक्षा से उन्हें अस कहा गया है। दिगम्बर परम्पग मधवला टीका में इसका समाधान यह कह कर किया गया कि वायु एवं अग्नि का स्थावर कहे जान का आधार उनकी गतिशीलता न होकर उनका स्थावर नामकर्म का उदय है। दिगम्बर परम्परा में ही कुन्दकुन्द के पंचास्तिकाय के टीकाकार जयसेनाचार्य ने यह १८ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 समन्वय निश्चय और व्यवहार के आधार पर किया। वे लिखते हैं .. पृथ्वी, अप और वनस्पति -- ये तीन स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर कहे जाते हैं, किन्तु वायु और अग्नि पंचस्थावर में वर्गीकृत किये जाते हुए भी चलन क्रिया दिखाई देने से व्यवहार से बस कह जाते है।18 इस प्रकार लब्धि और गतिशलता, स्थावर नामकर्म के उदय या निश्चय और व्यवहार के आधार पर प्राचीन आगमिक वचनों और परवर्ती सभी एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर मानने की अवधारणा के मध्य समन्वय स्थापित किया गया।