Book Title: Shat prabhut ka Rachnakar Kaun aur Uska Rachnakal Author(s): K R Chandra Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf View full book textPage 4
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य - 6. भूत कृदन्त हुड 4.30 हुओ, भूदो, भूओ कल्पित किये गए हैं, वे किसी हस्तप्रति में मिल भी जाएँ तो (2) (3) (4) (4) सर्वत्र छन्दोभंग होगा अतः ऐसी कल्पना करना कि अभी जो अपभ्रंश रूप उपलब्ध हैं वे विश्वसनीय नहीं हो सकते, यह किस वुत्त (3).21 वुत्तं (4) आधार पर मान्य रक्खा जाए? ऐसी परिस्थिति में यही मानना 7. संबंधक भूत कृदन्त आरहत्ता, (आरिहिऊप-तूपदूण) उपयुक्त होगा कि षट्प्राभूत में कितने ही ऐसे प्रयोग हैं, जो आरुहवि (5) परवर्ती (प्रवचनसार की भाषा की तुलना में) काल के और अपभ्रंश-भाषा संबंधी हैं, जिसके कारण षट्प्राभृत की रचना आरुहितुं दुं, उं का काल अपभ्रंश युग में चला जाता है और इसलिए यह न तो झाएवि (6) स्वयं कुन्दकुन्दाचार्य की ही रचना है और न ही उनके द्वारा आइऊण तूण, दूण प्रचलित प्राचीन गाथाओं का संकलन किया गया है। जैसी कि डा. ए.एन. उपाध्ये साहब की धारणा है। सन्दर्भ आइत्ता, झाइत्तु षट्प्राभूतादिसंग्रह, संपादक - पं. पन्नालाल सोनी, श्री (6) (6) माणिक चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, वि.सं. 1977 8. अप्पय (ई.सन् 1922) जह 3.18 जहा 2. इसके लिए आगे देखिए पृ. सं. 69 (2) देखिए प्रवचनसार, सम्पादक - ए.एन. उपाध्ये की प्रस्तावना ओ 6.8 पृ. सं. 35 (श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला, श्रीमद् तु या उ राजचन्द्र आश्रम अगास, 1964 (2) (1) (1) 4. वही, पृ 35 अणुदिणु अणुदिणं 5. Introduction, P. 35 (4) लगभग 150 से अधिक प्रयोग अपभ्रंश भाषा के सदृश इस तरह से समीक्षित या संशोधित आवृत्ति में जो पाठ मिल रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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