Book Title: Shasan Prabhavika Amar Sadhikaye
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 5
________________ BERRED Jain Education International १४२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड **?********* के साँकलचन्दजी चौधरी के साथ हुआ। कुछ समय के पश्चात् साँकलचन्दजी के शरीर में भयंकर व्याधि उत्पन्न हुई और उन्होंने सदा के लिए आँख मूंद ली। उस समय महासती रत्नाजी की शिष्या गुलाबकुँवरजी मादडा पधारीं । वे महान तपस्विनी थीं, उन्होंने अपने जीवन में अनेकों मासखमण किये थे । उनके उपदेश को सुनकर लछमाजी के मन में वैराग्य भावना उबुद्ध हुई। और वि० सं० १९२८ में भगवती दीक्षा ग्रहण की। वे प्रकृति से भद्र, विनीत और सरल मानसवाली थीं । एक बार वे अपनी सद्गुरुणीजी के साथ बड़ी सादडी में विराज रही थीं। सती-वृन्द कमरे में आहार कर रही थीं कि एक बालक आँखों से आँसू बरसाता हुआ आया। बालक को रोते हुए देखकर लछमाजी ने पूछा तू क्यों रो रहा है ? बालक ने रोते हुए कहा- मैं गट्टूलालजी मेहता के यहाँ नौकरी करता हूँ। मेरा नाम बछराज है । आज सेठ के वहाँ मेहमान आये हैं और सभी मिष्ठान खा रहे हैं। पर मेरे नसीब में रूखी-सूखी रोटी भी कहाँ है ? क्षुधा से छटपटाते हुए मैंने भोजन की याचना को । किन्तु उन्होंने मुझे दुत्कार कर घर से निकाल दिया कि तुझे माल खाना है या नौकरी करनी है । मैं अपने भाग्य पर पश्चात्ताप कर रहा हूँ । लछमजी ने बालक की ओर देखा । उसके चेहरे पर अपूर्व तेज था । उन्होंने उसे आश्वासन देते हुए कहा- रोओ मत। कल से तेरे सभी दुःख मिट जायेंगे। बालक हँसता और नाचता हुआ चल दिया । छोटी सादडी में नागोरी श्रेष्ठी के लड़का नहीं था। पास में लाखों की सम्पत्ति थी । सेठानी के कहने से सेठ जी बालक वछराज को दत्तक लेने के लिए बड़ी सादडी पहुँचे और उसको अपना दत्तक पुत्र घोषित कर दिया । बालक ने महासती के चरणों में गिरकर कहा – सद्गुरुणीजी, आपका ही पुण्य प्रताप है कि मुझे यह विराट सम्पत्ति प्राप्त हो रही है । आपकी भविष्यवाणी पूर्ण सत्य सिद्ध हुई । महासती लछमाजी के सहज रूप से निकले हुए शब्द सत्य सिद्ध होते थे। उनकी वाचा सिद्ध थी। उनके जीवन के ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिसमें उनकी चमत्कारपूर्ण जीवन झांकियाँ हैं । विस्तारभय से मैं उसे यहाँ नहीं दे रहा हूँ । महासती लछमाजी सं० १६५५ में गोगुन्दा पधारीं । मन्द ज्वर के कारण शरीर शिथिल हो चुका था। अतः चैत्र वदी अष्टमी के दिन उन्होंने संथारा ग्रहण किया। रात्रि में तीन दिन के पश्चात् एक देव ने प्रकट होकर उन्हें नाना प्रकार के कष्ट दिये और विविध प्रकार के सुगंधित भोजन से भरा हुआ थाल सामने रखकर कहा कि भोजन कर लो । किन्तु सतीजी ने कहा- मैं भोजन नहीं कर सकती। पहला कारण यह है कि देवों का आहार हमें कल्पता नहीं है । दूसरा कारण यह है कि रात्रि है। तीसरा कारण यह है कि मेरे संथारा है। इसलिए मैं आहार ग्रहण नहीं कर सकती । देव ने कहा- जब तक तुम आहार ग्रहण नहीं करोगी तब तक हम तुम्हें कष्ट देंगे। आपने कहा- मैं कष्ट से नहीं घबराती । एक क्षण भी प्रकाश करते हुए जीना श्रेयस्कर है किन्तु पथ भ्रष्ट होकर जीना उपयुक्त नहीं है। तुम मेरे तन को कष्ट दे सकते हो, किन्तु आत्मा को नहीं । आत्मा तो अजर अमर है । अन्त में देवशक्ति पराजित हो गयी । उसने उनकी दृढ़ता की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। संथारे के समय अनेकों बार देव ने केशर की और सूखे गुलाब के पुष्पों की वृष्टि की। दीवालों पर केशर और चन्दन की छाप लग जाती थी । संगीत की मधुर स्वर लहरियाँ सुनायी देती थीं और देवियों की पायल ध्वनि सुनकर जन-मानस को आश्चर्य होता था कि ये अदृश्य ध्वनियाँ कहाँ से आ रही हैं । इस प्रकार ६७ दिन तक संथारा चला। ज्येष्ठ वदी अमावस्या वि० सं० १९५६ के दिन उनका संथारा पूर्ण हुआ और वे स्वर्ग पधारीं । परम विदुषी महासती श्री सद्दाजी की शिष्याओं में महासती श्री रत्नाजी परम विदुषी सती थीं। उनकी एक शिष्या महासती रंभाजी हुईं। रंभाजी प्रतिभा की धनी थीं। उनकी सुशिष्या महासती श्री नवलाजी हुईं। नवलाजी परम विदुषी साध्वी थीं। उनकी प्रवचन शैली अत्यन्त मधुर थी । जो एक बार आपके प्रवचन को सुन लेता वह आपकी त्याग, वैराग्ययुक्त वाणी से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। आपकी अनेक शिष्याएँ हुई उनमें से पांच शिष्याओं के नाम और उनकी परम्परा उपलब्ध होती है । सर्वप्रथम महासती नवलाजी की सुशिष्या कंसुवाजी थीं। उनकी एक शिष्या हुई। उनका नाम सिरेकुंवरजी था और उनकी दो शिष्याएं हुई एक का नाम साकरकुंवरजी और दूसरी का नाम नजरकुंवरजी था। महासती साकरकुंवरजी की कितनी शिष्याएँ हुई यह प्राचीन साक्ष्यों के अभाव में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। किन्तु महासती नजरकुंवरजी की पाँच शिष्याएँ हुई। महासती नजरजी एक विदुषी साध्वी थीं । इनकी जन्मस्थली उदयपुर राज्य के वल्लभनगर के सन्निकट मेनार गाँव थी । आप जाति से ब्राह्मण थीं । ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण आप में स्वाभाविक प्रतिभा थी । आगम साहित्य का अच्छा परिज्ञान था। आपकी पाँच शिष्याओं के नाम इस प्रकार हैं - ( १ ) महासती रूपकुँवरजी - यह उदयपुर के सन्निकट देलवाड़ा ग्राम को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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