Book Title: Shasan Prabhavika Amar Sadhikaye Author(s): Devendramuni Shastri Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 3
________________ O 0 Jain Education International १४० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : अष्टम खण्ड का निश्चय किया। उस समय मुनि भिक्षा के लिए आये । ईश्वरी मुनि को देखकर अत्यन्त आह्लादित हुई । आर्य वज्रसेन ने ईश्वरी को बताया कि विष मिलाने की आवश्यकता नहीं है । कल से सुकाल होगा। उसी रात्रि में अन्न के जहाज आ गये जिससे सभी के जीवन में सुख-शान्ति की बंसी बजने लगी । ईश्वरी की प्रेरणा से सेठ जिनदत्त ने अपने नागेन्द्र, चन्द्र, निर्वृत्ति और विद्याधर इन चारों पुत्रों के साथ आहंती दीक्षा ग्रहण की। और उनके नामों से गच्छ और कुल परम्परा प्रारम्भ हुई। साध्वी ईश्वरी ने भी उत्कृष्ट साधना कर अपने जीवन को चमकाया । इसके पश्चात् भी अनेक साध्वियाँ हुई, किन्तु क्रमबार उनका उल्लेख या परिचय नहीं मिलता, जिन्होंने अपनी आत्म ऊर्जा, बौद्धिक चातुर्य, नीति-कौशल एवं प्रखर प्रतिभा से जैन शासन की महनीय सेवा की। मैं यह मानता हूँ कि ऐसी अनेक दिव्य प्रतिभाओं ने जन्म लिया है, किन्तु उनके कर्तृत्व का सही मूल्यांकन नहीं हो सका । हम यहाँ अठारहवीं सदी की एक तेजस्वी स्थानकवासी साध्वी का परिचय दे रहे हैं जिनका जन्म देहली में हुआ था । उनके माता-पिता का नाम ज्ञात नहीं है और उनका सांसारिक नाम भी क्या था यह भी पता नहीं है । पर उन्होंने आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज के समुदाय में किसी साध्वी के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण की थी । ये महान प्रतिभासम्पन्न थीं। इनका श्रमणी जीवन का नाम महासती भागाजी था । इनके द्वारा लिखे हुए अनेकों शास्त्र, रास तथा अन्य ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ श्री अमर जैन ज्ञान भण्डार, जोधपुर में तथा अन्यत्र संग्रहीत हैं । लिपि उतनी सुन्दर नहीं है, पर प्रायः शुद्ध है । और लिपि को देखकर ऐसा ज्ञात होता है कि लेखिका ने सैकड़ों ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ की होंगी। आचार्यश्री अमरसिंहजी महाराज के नेतृत्व में पंचेवर ग्राम में जो सन्त सम्मेलन हुआ था उसमें उन्होंने भी भाग लिया था। और जो प्रस्ताव पारित हुए उसमें उनके हस्ताक्षर भी हैं । अनुश्रुति है कि उन्हें बत्तीस आगम कण्ठस्थ थे। एक बार वे देहली में विराज रही थीं । शौच के लिए वे अपनी शिष्याओं के साथ जंगल में पधारीं । वहाँ से लौटने के पश्चात् रास्ते में एक उपवन था उसमें एक बहुत रमणीय स्थान था जो एकान्त था वहाँ पर बैठकर महासती जी स्वाध्याय करने लगी । स्वाध्याय चल रही थी, इधर वृहद् नौ तत्त्व के रचयिता श्रावक दलपतसिंहजी उधर निकले । उन्होंने देखा कि उपवन के वृक्षों के पत्ते दनादन गिर रहे हैं। फूल मुरझा रहे हैं । असमय में पतझड़ को आया हुआ देखकर उन्होंने सोचा इसका क्या कारण हैं ? इधर-उधर देखा तो उन्हें महासतीजी एकान्त में बैठी हुई दिखायी दीं। श्रावकजी उनकी सेवा में पहुँचे । नमन कर उन्होंने महासती से पूछा- आप क्या कर रही हैं। महासती ने बताया कि मैं स्वाध्याय कर रही हूँ । इस समय चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति की स्वाध्या चल रही है। श्रावकजी ने नम्रता से निवेदन किया-सद्गुरुणीजी, देखिए कि वृक्ष के पत्ते असमय में गिर रहे हैं, फूल मुरझा रहे हैं। लगता है स्वाध्याय करते समय कहीं असावधानी से स्खलना हो गई है। कृपाकर आपश्री पुनः स्वाध्याय करें । लाला दलपतसिंहजी भी आगम के मर्मज्ञ विद्वान थे । स्वाध्याय की गयी । जहाँ पर स्खलना हुई थी श्रावकजी ने उन्हें बताया । स्खलना का परिष्कार करने पर वृक्षों के पत्ते गिरने बन्द हो गये और फूल मुस्कराने लगे। 1 महासतीजी का विहार क्षेत्र दिल्ली, पंजाब, जयपुर, जोधपुर, मेड़ता और उदयपुर रहा है-ऐसा प्रशस्तियों के आधार से ज्ञात होता है। महासती भागाजी की अनेक विदुषी शिष्याएँ थीं उनमें वीराजी प्रमुख थीं। वे भी आगमों के रहस्यों की ज्ञाता और चारित्रनिष्ठा थी। उनकी जन्मस्थली आदि के सम्बन्ध में सामग्री प्राप्त नहीं है । महासती वीराजी की मुख्य शिष्या सद्दाजी थीं जिनका परिचय इस प्रकार है । राजस्थान के साम्भर ग्राम में वि० सं० १९५७ के पौष कृष्ण दशम को महासती सद्दाजी का जन्म हुआ । उनकी माता का नाम पाटनदे था और पिता का नाम पीथाजीमोदी था । और दो ज्येष्ठ भ्राता थे । उनका नाम मालचन्द और बालचन्द था । सद्दाजी का रूप अत्यन्त सुन्दर था तथा माता-पिता का अपूर्व प्यार भी उन्हें प्राप्त हुआ था । उस समय जोधपुर के महाराजा अभयसिंहजी थे। सुमेरसिंहजी मेहता महाराजा अभयसिंह के मनोनीत अधिकारी थे। उन्होंने उनके पिता के सामने प्रस्ताव रखा चारण के द्वारा सद्दाजी के अपूर्व रूप की प्रशंसा सुनकर अन्त में सद्दाजी का पाणिग्रहण उनके साथ सम्पन्न हुआ । विराट वैभव और मनोनुकूल पत्नी को पाकर मेहताजी भोगों में तल्लीन थे । सद्दाजी को बाल्यकाल से ही धार्मिक संस्कार मिले थे । इस कारण वे प्रतिदिन सामायिक करती थीं और प्रातःकाल व सन्ध्या के समय प्रतिक्रमण भी करती थीं । एक बार सद्दाजी एक प्रहर तक संवर की मर्यादा लेकर नमस्कार महामन्त्र का जाप कर रहीं थीं, उसी समय दासियाँ घबरायी हुई और आँखों में आँसू बरसाती हुई दौड़ी आयीं और कहा मालिकन, गजब हो गया । मेहताजी की For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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