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एक जीव की भी हिंसा करने में अत्यंत पाप है तब जंतुओं का समुदाय से भरा हुवा इस मक्खन को कौन भक्षण करें ? अर्थात् किसी भी दयावान् मनुष्य उसका भक्षण करे नहीं.
उपरोक्त श्लोक में मुहूर्तात्परतः नहीं मेगर अंतर्मुहूर्ता स्परतः कहा है जिसका तात्पर्य यह है कि मुहूर्त के पीछे नहीं मगर अंतमुहूर्त के पीछे उसमें सूक्ष्म जंतुओं के समूह उत्पन्न होते हैं दो समय से लेकर दो घडी में एक समय कम होवे वहां तक अन्तर्मुहूर्त गिना जाता है जिससे हमने दो घडी में उत्पन्न होने का लिखा है सो उस ग्रंथ के मत से तो बराबर है मगर सूत्र श्री वेदकल्प देखने से हमारा मन भी शङ्का शील हो गया है क्योंकि श्री वेदकल्प सूत्र के छट्टा उद्देश का ४६ वां सूत्र इस प्रकार है.
'नो कृप्पई निग्गंथावा. निरंगथीणवा पारिया सरणं तेलेणवा, घरणवा नवणीरणवा वसारणवा गायाई अभंगेतरावा मखेतवा गणत्थगाढागाढ़े रोगायकसु (४६) अर्थ:-नो, न कल्पे निः साधु साध्वी को पः पहिला प्रहर का लिया हुंवा पिछले प्रहर तकं ते. तेल घ. घृत नं. लवणी (मक्खन) व. चरवी मा. शरीर को अ. एक दफे लगाना म. वारंवार लगाना ण. इतना विशेष कि गा.. गाढ़ागाढ कारण से रोगादिक में लंगाना कल्पे.
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उपरोक्तं सूत्र से पहिले प्रहर में लिया हुवा मक्खन आदिका अभ्यंगण करना तीसरा महरतक साधु साध्वी को कल्पनिक है ऐसा स्पष्ट मालूम होता है यदि मक्खन में योग शास्त्र में कहे अनुसार अंतर्मुहूर्त के पीछे त्रस