Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 18
________________ १८ षड्दर्शनसमुच्चय दर्शन ( वैशेषिक ), ११. अक्षपाददर्शन ( नैयायिक ), १२. जैमिनिदर्शन ( मीमांसा), १३. पाणिनिदर्शन, १४. सांख्यदर्शन, १५. पातंजलदर्शन, १६. शांकरदर्शन ( वेदान्तशास्त्र ) । 'प्रस्थान भेद' के लेखकने जिस उदारताका परिचय दिया है वह भी इस सर्वदर्शनसंग्रह में नहीं । वह तो अद्वैतको ही अन्तिम सत्य मानता है । नयचक्र में सर्वदर्शनोंके समूहको अनेकान्तवाद कहा है और प्रत्येक दर्शनको एकान्त कहा है। उसके अनुसार अद्वैत मत भी एक एकान्त ही ठहरता है अन्तिम सत्य नहीं । जब कि 'सर्वदर्शनसंग्रह के मतसे अद्वैत हो अन्तिम सत्य है । बाकी सब मिथ्या है। वस्तुतः नयचक्र और सर्वदर्शनसंग्रह इन दोनोंका एक ही ध्येय है और वह यह कि अपने-अपने दर्शनको सर्वोपरि सिद्ध करना । माधवसरस्वती (? ई. १३५०) ने 'सर्वदर्शन कौमुदी' नामक ग्रन्थ लिखा है जो त्रिवेन्द्रम् संस्कृत ग्रन्थमालामैं ई. १९३८ में प्रकाशित है। इस ग्रन्थकारने भी वैदिक-अवैदिक - इस प्रकारका दर्शन विभाग स्थिर किया है । वेदको प्रमाण माननेवालोंको वह शिष्ट मानता है और वेदके प्रमाणको स्वीकार नहीं करनेवाले बौद्धको अशिष्ट । माधव सरस्वतीने वैदिक और अवैदिक ऐसे दो भेद दर्शनोंके किये हैं । वैदिक दर्शनों में इनके अनुसार तर्क, तन्त्र और सांख्य ये तीन दर्शन हैं। तर्कके दो भेद हैं-वैशेषिक और नैयायिक | तन्त्रका विभाजन इस प्रकार है शब्दमीमांसा (व्याकरण) तन्त्र | कर्मकाण्डविचार = पूर्वमीमांसा Jain Education International अर्थमीमांसा भाट्ट प्राभाकर = सांख्यदर्शनके दो भेदोंका निर्देश है— सेश्वरसांख्य योगदर्शन और निरीश्वरसांख्य = प्रकृतिपुरुष के भेदक प्रतिपादक । इस प्रकार वैदिक दर्शनोंके छह भेद हैं- योग, सांख्य, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, नैयायिक, और वैशेषिक । ज्ञानकाण्डविचार = उत्तरमीमांसा अवैदिक दर्शन के तीन भेद हैं- बौद्ध, चार्वाक और आर्हत । तथा बौद्धदर्शनके चार भेद हैं- माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिकरे । इस ग्रन्थकी विशेषता यह है कि वह इस क्रमसे दर्शनोंका निरूपण करता है - वैशेषिकदर्शनका सर्वप्रथम निरूपण है । किन्तु वैशिषकों के ही द्वारा विपर्ययके निरूपण प्रसंग में ख्यातिवादकी चर्चा की गयी हैउसी में सदसत्ख्यातिको माननेवाले जैनोंका दर्शन पूर्वपक्षमें निरूपित है । और वैशेषिकों द्वारा विपरीतख्याति - की स्थापनाके लिए उसका निराकरण किया गया है । अतएव जैनदर्शनका निरूपण पृथक् करनेकी आवश्यकता लेखकने मानी नहीं है । वैशेषिकके अनन्तर नैयायिक दर्शनका निरूपण है ( पू. ६३ ) और क्रमशः मीमांसा, सांख्य और योगदर्शनका निरूपण है । १. वेदप्रामाण्याभ्युपगन्ता शिष्टः । तदनभ्युपगन्ता बौद्धोऽशिष्टः ।-पू. ३ । २. सर्वदर्शनकौमुदी, पृ. ४ । ३. सर्वदर्शनकौमुदी, पृ. ३४ और पृ. १०८ । लेखकने जैनदर्शनका पूर्वपक्ष जो उपस्थित किया है वह अन्त नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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