Book Title: Shaddarshan Samucchaya
Author(s): Haribhadrasuri, Mahendramuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ प्रस्तावना कारण है कि पुराणों और स्मृतियोंमें न्याय और मीमांसाको पृथक् गिनाया गया। इस प्रकार पुराण काल में न्याय, सांख्य, योग, मीमांसा और लोकायत-ये दर्शन पृथक् सिद्ध होते हैं। स्मृति और पुराणों में विद्यास्यानोंमें सांख्य-योग-लोकायतको स्थान मिलना सम्भव नहीं था क्योंकि उनका आधार वेद नहीं था। किन्तु महाभारत और गीतासे स्पष्ट है कि दर्शनोंमें सांख्य-योगका स्थान पूरी तरहसे जम चुका था। और वे अवैदिक किन्त वैदिक दर्शन में शामिल कर लिये गये थे। इस प्रकार ईसाकी प्रारम्भकी शताब्दियों में न्यायवैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा-ये दर्शन वैदिकोंमें पृथक-पृथक रूपसे अपना स्थान जमा चुके थे। उनके विरोधमें जैन, बौद्ध और चार्वाक-ये तीन अवैदिक दर्शन भी ईसा पूर्व कालसे वैदिक दार्शनिकोंके लिए समस्या रूप बने हुए थे। मीमांसामें कर्म और ज्ञानके प्राधान्यको लेकर दो भेद हो गये थे। अतएव वैदिकोंमें षट्तर्क या षड्दर्शनकी स्थापना हो गयी थी जिसमें न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग और पूर्व और उत्तर मोमांसा-ये प्राधान्य रखते थे। प्रस्तुत ग्रन्थमें षड्दर्शनोंका विवरण है किन्तु दर्शनोंकी छह संख्या और उस छह संख्यामें भी किनकिन दर्शनोंका समावेश है-इस विषयमें ऐकमत्य नहीं दीखता । वैदिक दर्शनोंके अनुयायी जब छह दर्शनोंकी चर्चा करते हैं तब वे छह दर्शनोंमें केवल वैदिक दर्शनोंका ही समावेश करते हैं। किन्तु प्रस्तुत षड्दर्शनसमुभयमें वैदिक-अवैदिक सब मिलाकर छह संख्या है । यह भी ध्यान देनेकी बात है कि दर्शनोंको छह गिननेकी प्रक्रिया भी ईसवी सन के प्रारम्भकी कई शताब्दियोंके बाद ही शुरू हई है। वाचस्पति मिश्रने एक वैशेषिकदर्शनको छोड़कर न्याय, मीमांसा-पूर्व और उत्तर, सांख्य और योग-इन पांचोंकी व्याख्या की। इससे यह तो पता लगता है कि उनके समय तक छहों वैदिक दर्शन प्रतिष्ठित हो चुके थे। उन्होंने वैशेषिक दर्शनपर पृथक् लिखना इसलिए जरूरी नहीं समझा कि उस दर्शनके तत्त्वोंका विवेचन न्यायमें हो ही जाता है । वाचस्पति एक अपवादरूप वैदिक लेखक हैं । इनके पहले किसी एक वैदिक लेखकने तत्तदर्शनोंके ग्रन्थोंका समर्थन तत्तद्दर्शनोंकी मान्यताके अनुसार नहीं किया केवल वाचस्पतिने यह नया मार्ग अपनाया और जिन लिखने बैठे तो उसी दर्शनके होकर लिखा । आचार्य हरिभद्र और वाचस्पतिमें यह अन्तर है कि वाचस्पतिने टीकाकारके रूपमें या स्वतन्त्र रूपसे विरोधी दर्शनका निराकरण करके तत् तददर्शनोंका समर्थन किया है। जब कि हरिभद्रने मात्र परिचय दिया है । यह भी अन्तर है कि वाचस्पतिने दर्शनोंपर पृथक्-पृथक् ग्रन्थ लिखे किन्तु हरिभद्रने एक ही ग्रन्थमें छहों दर्शनोंका परिचय दिया। यह भी ध्यान देनेकी बात है कि वाचस्पतिके दर्शनोंमें चार्वाक दर्शनका समर्थन नहीं है और न अन्य अवैदिक जैन-बौद्धका। जब कि हरिभद्रने वैदिक-अवैदिक सभो दर्शनोंका अपने ग्रन्थमें समावेश परिचयके लिए कर लिया है। आचार्य हरिभद्रने बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और जैमिनीय इन छह दर्शनोंका समावेश षड्दर्शनसमुच्चयमें किया है। दार्शनिकोंमें प्रथम तो यह प्रवृत्ति शुरू हुई कि अपने विरोधी मतोका निराकरण करना। किन्तु आगे चलकर वैदिकों में यह प्रवृत्ति भी देखी जाती है कि सच्चे अर्थमें वेदके अनुयायी केवल वे स्वयं हैं और उनका ही दर्शन वेदका अनुयायी है, अन्य दर्शन वेदकी दुहाई तो देते हैं किन्तु वस्तुतः वेद और उसके मतसे उनका कोई सम्बन्ध नहीं। जब स्वयं वैदिक दर्शनों में ही पारस्परिक ऐसा विवाद हो तब अवैदिक दर्शनका तो ये वैदिक दर्शन तिरस्कार ही करें यह स्वाभाविक है । इस भूमिका में हम देखते हैं कि न्यायमंजरीकार जयन्त केवल वैदिक दर्शनोंको ही तर्कमें या न्यायमें समाविष्ट करते हैं और बौद्धादि अन्य दर्शनोंका बहिष्कार घोषित करते हैं। यह प्रवृत्ति उनसे पहलेके कुमारिलमें भी स्पष्ट रूपसे विद्यमान है। और शंकराचार्य भी उसका अनुकरण करते है । विशेषता यह है कि वे सांख्य-योग-बौद्ध, वैशेषिक, जैन और न्यायदर्शनको तथा शैव और वैष्णव दर्शनोंको भी वेद विरोधी मानते हैं। १. न्यायमंजरी पृ. ४ । २. तन्त्रवार्तिक १,३,४। हिस्ट्री ऑफ् धर्मशास्त्र भाग. ५, पृ. ९२६ में उद्धरण है। अन्य उद्धरण उसी में पृ. १००९, १२६२ में हैं। ३. ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य २,१,१; २, १, ३, २, १, ११-१२, २, २, १-४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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