Book Title: Shadavashyak ke Kram ka Auchitya Author(s): Parasmal Chandaliya Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 5
________________ 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 145 ५. पाँचवाँ आवश्यक : कायोत्सर्ग - छह आवश्यकों में कायोत्सर्ग पाँचवाँ आवश्यक है ! कायोत्सर्ग में दो शब्द हैं - काय और उत्सर्ग। जिसका अर्थ है -काय का त्याग अर्थात् शरीर के ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है । प्रतिक्रमण आवश्यक के बाद कायोत्सर्ग का स्थान है। प्रतिक्रमण के द्वारा व्रतों के अतिचार रूप छिद्रों को बंद कर देने वाला, पश्चात्ताप के द्वारा पाप कर्मों की निवृत्ति करने वाला साधक ही कायोत्सर्ग की योग्यता प्राप्त कर सकता है। जब तक प्रतिक्रमण के द्वारा पापों की आलोचना करके चित्त शुद्धि न किया जाय, तब तक धर्मध्यान या शुक्लध्यान के लिए एकाग्रता संपादन करने का, जो कायोत्सर्ग का उद्देश्य है, वह किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सकता । अनाभोग आदि से लगने वाले अतिचारों की अपेक्षा अविवेक, असावधानी आदि से लगे बड़े अतिचारों की कायोत्सर्ग शुद्धि करता है। इसीलिए कायोत्सर्ग को पाँचवाँ स्थान दिया गया है। कायोत्सर्ग एक प्रकार का प्रायश्चित्त है। वह पुराने पापों को धोकर साफ कर देता है । 'तस्सउत्तरी' के पाठ (उत्तरीकरण का पाठ) में यही कहा है कि पापयुक्त आत्मा को श्रेष्ठ उत्कृष्ट बनाने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिये, विशेष शुद्धि करने के लिए, शल्यों का त्याग करने के लिए, पाप कर्मो का नाश करने के लिए कायोत्सर्ग में शरीर के व्यापारों का त्याग किया जाता है । अनुयोगद्वार सूत्र में कायोत्सर्ग आवश्यक का नाम 'व्रण - चिकित्सा' कहा है। व्रत रूप शरीर में अतिचार रूप व्रण ( घाव, फोड़े) के लिए पाँचवाँ कायोत्सर्ग आवश्यक चिकित्सा रूप पुल्टिस ( मरहम ) का काम करता है । जैसे पुल्टिस, फोड़े के बिगड़े हुए रक्त को मवाद बना कर निकाल देता है और फोड़े की पीड़ा को शान्त कर देता है उसी प्रकार यह काउस्सग्ग रूप पाँचवाँ आवश्यक, व्रत में लगे हुए अतिचारों के दोषों को दूर कर आत्मा को निर्मल एवं शांत बना देता है। उत्तराध्ययन सूत्र के उनतीसवें अध्ययन में कायोत्सर्ग का फल इस प्रकार कहा है- "हे भगवन्! कायोत्सर्ग करने से जीव को किन गुणों की प्राप्ति होती है ?" इसके उत्तर में भगवान् फरमाते हैं - "कायोत्सर्ग करने से भूतकाल और वर्तमान काल के दोषों का प्रायश्चित्त करके जीव शुद्ध बनता है और जिस प्रकार बोझ उतर जाने से मजदूर सुखी होता है उसी प्रकार प्रायश्चित्त से विशुद्ध बना हुआ जीव शान्त हृदय बन कर शुभ ध्यान ध्याता हुआ सुखपूर्वक विचरता है। ६. छठा आवश्यक : प्रत्याख्यान- छह आवश्यकों में प्रत्याख्यान छठा आवश्यक है। प्रत्याख्यान का सामान्य अर्थ है - त्याग करना । प्रत्याख्यान में तीन शब्द है प्रति + आ + ख्यान | अविरति एवं असंयम के प्रति अर्थात् प्रतिकूल रूप में 'आ' अर्थात् मर्यादा स्वरूप आकार के साथ, 'ख्यान' अर्थात् प्रतिज्ञा को 'प्रत्याख्यान' कहते हैं। अथवा अमुक समय के लिए पहले से ही किसी वस्तु के त्याग कर देने को 'प्रत्याख्यान' कहते हैं। अविवेक आदि से लगने वाले अतिचारों की अपेक्षा जानते हुए दर्प आदि से लगे बड़े अतिचारों की शुद्धि प्रत्याख्यान करता है, अतः प्रत्याख्यान को छठा स्थान दिया गया है। अथवा प्रतिक्रमण Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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