Book Title: Shadavashyak ke Kram ka Auchitya Author(s): Parasmal Chandaliya Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 3
________________ 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी प्रेरणा मिलती है, अहंकार का नाश होता है, गुणों के प्रति अनुराग बढ़ता है और साधना का मार्ग प्रशस्त बनता है। शुभ भावों से दर्शन विशुद्धि होती है और दर्शन-विशुद्धि से आत्मा कर्म-मल से रहित होकर शुद्ध निर्मल हो जाती है, परमात्म पद को प्राप्त कर लेती है और वीतराग प्रभु के समान बन जाती है। चतुर्विंशतिस्तव के फल के लिए उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २९ में पृच्छा की है - "हे भगवन्! चतुर्विंशतिस्तव से आत्मा को किस फल की प्राप्ति होती है ?" भगवान् ने कहा- “हे गौतम! चतुर्विंशतिस्तव से दर्शन-विशुद्धि होती है।" समभाव में स्थित आत्मा ही वीतराग प्रभु के गुणों को जान सकता है, उनकी प्रशंसा कर सकता है। अर्थात् जब सामायिक की प्राप्ति हो जाती है तब ही भाव पूर्वक तीर्थंकरों की स्तुति की जा सकती है। अतएव सामायिक आवश्यक के बाद चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक रखा गया है। ३. तीसरा आवश्यक : वंदन - चतुर्विंशतिस्तव नामक दूसरे आवश्यक में तीर्थंकर देवों की स्तुति की गयी है। देव के बाद दूसरा स्थान गुरु का ही है। तीर्थंकर भगवंतों द्वारा प्ररूपित धर्म का उपदेश निर्ग्रन्थ मुनिराज ही देते हैं। तीसरे वंदना आवश्यक में गुरुदेव को वंदन किया जाता है। मन, वचन, और काया का वह शुभ व्यापार जिसके द्वारा गुरुदेव के प्रति भक्ति और बहुमान प्रकट किया जाता है 'वंदन' कहलाता है। ___ जो साधु द्रव्य और भाव से चरित्र सम्पन्न हैं तथा जिनेश्वर भगवान् के बताए हुए मार्ग पर चलते हुए जिन-प्रवचन का उपदेश देते हैं, वे ही सुगुरु हैं! आध्यात्मिक साधना में सदैव रत रहने वाले त्यागी-वैरागी शुद्धाचारी संयमनिष्ठ सुसाधु ही वंदनीय पूजनीय होते हैं। ऐसे सुसाधु-गुरु भगवन्तों को भावयुक्त उपयोग पूर्वक निःस्वार्थ भाव से किया हुआ वंदन कर्म-निर्जरा और अंत में मोक्ष का कारण बनता है। इसके विपरीत भाव चारित्र से ही द्रव्यलिंगी-कुसाधु अवंदनीय होते हैं। संयमभ्रष्ट वेशधारी कुसाधुओं को वंदन करने से कर्म-निर्जरा नहीं होती, अपितु वह कर्म-बंधन का कारण बनता है। सुगुरुओं को यथाविधि वंदन करने से विनय की प्राप्ति होती है। अहंकार का नाश होता है। वंदनीय में रहे हुए गुणों के प्रति आदर भाव होता है। तीर्थंकर भगवन्तों की आज्ञा का पालन होता है। वंदना करने का मूल उद्देश्य ही नम्रता प्राप्त करना है। नम्रता अर्थात् विनय ही जिनशासन का मूल है। उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययन २९ में गौतम स्वामी प्रभु भगवान् महावीर से पूछते हैं कि - "हे भगवन्! वंदन करने से जीव को क्या लाभ होता है?"५ उत्तर में भगवान् महावीर स्वामी फरमाते हैं कि - "वंदन करने से यह आत्मा नीच गोत्र कर्म का क्षय करता है, उच्चगोत्र का बंध करता है। उसे सुभग, सुस्वर आदि सौभाग्य की प्राप्ति होती है, सभी उसकी आज्ञा स्वीकार करते हैं और.वही दाक्षिण्य भाव, कुशलता एवं सर्वप्रियता को प्राप्त करता है।" __ जो व्यक्ति अपने इष्ट देव तीर्थंकर भगवंतों की स्तुति करता है, गुण-स्मरण करता है वही तीर्थंकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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