Book Title: Shad Avashyak Ek Vaigyanik Vishleshan Author(s): Nandighoshvijay Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf View full book textPage 6
________________ संदर्भ में विभिन्न विभावना, अर्थ व प्रयोजन होते हैं । अतः वही सूत्र पहले आ गया होने पर भी उसी स्थान पर उसका विशेष महत्त्व होता है । · प्रतिक्रमण आदि विधि में "सुगुरु वांदणा" वंदनक सूत्र हमेशा दो दो बार आता है । उसके बारे में सभी को प्रश्न होता है किन्तु "वांदणां" सूत्र गुरु भगवंत के प्रति अपने विय की अभिव्यक्ति के लिये है और गुरुदेव अपने | सब के नजदीक के उपकारी है क्योंकि उन्होंने प्रभु की वाणी को अपने तक पहुँचाकर देव गुरु व धर्म का तात्त्विक स्वरूप हमें समझाया है । अतः गुरु के प्रति अत्यंत पूज्यभाव बताने के लिये "वांदणा" सूत्र दो बार बोला जाता है । सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदनक प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान इन छः आवश्यकों का क्रम भी बहुत विचारपूर्वक रखा गया है राग-द्वेष के परिणाम बिना सम-शिथिल किये श्री जिनेश्वर प्रभु या श्री जिनेश्वर प्रभु द्वारा प्ररूपित धर्म या तत्त्वों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती है। | अतः राग-द्वेष के परिणाम को सम करने के लिये "सामायिक" आवश्यक सर्व प्रथम कहा है । शास्त्रों में सम्यक्त्व को भी सामायिक कहा है । सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद प्रभु व प्रभु के वचन के प्रति श्रद्धा, अहोभाव व पूज्यभाव पैदा होता है । परिणामतः उनके प्रति सहजता से नमस्कार हो जाता है | अतः सामायिक के बाद तुरंत चतुर्विंशतिस्तव रखा है । तीर्थकर परमात्मा के बाद तुरंत गुरु का स्थान है । अतः उनके प्रति विन. - भक्ति बहुमान व्यक्त करने के लिये बंदनक आवश्यक रखा हैं तथा पाप से पीछेहठ करने की प्रक्रिया स्वरूप प्रतिक्रमण हमेशा गुरु की समक्ष, गुरु की साक्षी में करना होता है । अतः इस क्रिया के पूर्व अवश्य वंदन करना चाहिये । अतः प्रतिक्रमण के पूर्व "वंदनक" आवश्यक रखा है । प्रतिक्रमण आवश्यक में गुरु की समक्ष भूतकाल में किये गये पापों को अपराध स्वरूप में स्वीकार के पश्चात् गुरु भगवंत उन पापों के प्रायश्चित्त के रूप में तप, जप, क्रिया, अनुष्ठान करने को कहते हैं । उसके प्रतीक | स्वरूप दैनिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक या सांवत्सरिक प्रायश्चित्त के रूप में अनुक्रम से पचास श्वासोच्छ्वास प्रमाण दो लोगस्स, तीनसौ श्वासोच्छ्वास प्रमाण बारह लोगस्स, पाँचसौ श्वासोच्छ्वास प्रमाण बीस लोगस्स और एक | हजार आठ श्वासोच्छ्वास प्रमाण चालीस लोगस्स व एक नवकार का Jain Education International 84 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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