Book Title: Shad Avashyak Ek Vaigyanik Vishleshan Author(s): Nandighoshvijay Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf View full book textPage 5
________________ सवीसइ राए मासे विइक्कंते वासावासं पज्जोसविंति । जहा णं गणहरावि वासाणं सवीसइ राए मासे विइक्कंते वासावासं पज्जोसविति तहा णं गणहरसीसावि वासाणं जाव पज्जोसविति । जहा णं गणहरसीसावि वासाणं सवीसइ राए मासे विइक्कंते वासावासं पज्जोसविंति तहा णं थेरावि वासाणं जाव पज्जोसविति । जहा णं थेरावि वासाणं सवीसइ राए मासे विइक्कंते वासावासं पज्जोसविंति तहा णं जे इमे अज्जत्ताए समणे निग्गंथा विहरंति एएवि य णं वासाणं जाव पज्जोसर्विति । जहा णं जे इमे अज्जत्ताए समणे निग्गंथा वासाण जाव पज्जोसविति, तहा णं अम्हं पि आयरिया उवज्झाया वासाणं जाव पज्जोसविति । जहा णं अम्हं पि आयरिया उवज्झाया वासाणं जाव पज्जासविति तहा णं अम्हे वि सवीसइ राए मासे विइक्कंते वासावासं पज्जोसवेमो । अंतरावि य से कप्पइ पज्जोसवित्तए । नो से कप्पइ तं रयणिं उवाइणावित्तए । [ कल्पसूत्र सामाचारी सूत्र-३, ४, ५. ६, ७. ८ ] पर्युषणा अर्थात् सांवत्सरिक वार्षिक प्रतिक्रमण अर्थात् अपनी सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की विधि श्रमण भगवान श्री महावीरस्वामी के समय से चली आती है । प्रतिक्रमण की विधि में कुछ सूत्र बार बार आते हैं । अतः विधि व उसके प्रयोजन संबंधित रहस्य से अज्ञात आराधकों के मन में प्रश्न पैदा होता है कि यही सूत्र तो पहले आ गया है तो यहाँ वह पुनः क्यों रखना चाहिये ? वास्तव में किसी भी शब्द या सत्र का जब हम फिर से प्रयोग करते हैं तब पूर्व का जो संदर्भ था उससे भिन्न संदर्भ यहाँ होता है । उसी कारण से जितनी बार उसी शब्द या सूत्र का प्रयोग होता है उतनी बार उसकी भिन्न भिन्न विभावना I(Concept) व तात्पर्य होता है । उदा. धर्म शब्द के विभिन्न अर्थ है । अतः यह स्वाभाविक है कि भिन्न भिन्न वाक्य या प्रसंग के संदर्भ में उसके भिन्न भिन्न अर्थ होते हों । तथापि एक ही अर्थ में एक ही ग्रंथ में विभिन्न स्थान पर प्रयुक्त धर्म शब्द की विभावना सभी स्थान पर समान नहीं होती है । उसमें भी थोड़ी थोड़ी भिन्नता होती ही है । उसी प्रकार सामायिक, प्रतिक्रमण आदि की विधि में विभिन्न स्थान पर प्रयुक्त एक ही सूत्र की विभिन्न स्थान के 83 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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