Book Title: Shabdadwaitvad Jain Drushti
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 14
________________ शब्दानुविद्धत्व क्या है ? शब्दाद्वैतवादियों ने ज्ञान को शब्दानुविद्ध माना है। अत: प्रभाचन्द्राचार्य उनसे प्रश्न करते हैं कि शब्दानुविद्धत्व क्या है ? निम्नांकित दो विकल्पों में से किसी एक विकल्प को शब्दानुविद्धत्व माना जा सकता है.--- (क) क्या शब्द का प्रतिभास होना (जहां पदार्थ है, वहां शब्द है, ऐसा प्रतिभास होना) शब्दानुविद्धत्व है ? अथवा (ख) अर्थ और शब्द का तादात्म्य होना? उपर्युक्त दोनों विकल्पों में से किसी भी विकल्प को शब्दानविद्धत्व मानना दोषविहीन नहीं है, अतः शब्दानुविद्धत्व का स्वरूप ही निश्चित नहीं हो सकता। (क) क्या शब्द का प्रतिभास होना शब्दानुविद्धत्व है-शब्दानुविद्धत्व का यह स्वरूप कि जिस स्थान पर पदार्थ रहते हैं, वहीं पर शब्द रहते हैं—यह मत तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण से शब्दरहित पदार्थ की प्रतीति होती है। पदार्थ शब्दानुविद्ध है, ऐसा किसी को कभी भी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता । प्रत्यक्ष में जिस प्रकार सामने स्थित नीलादि प्रतिभासित होता है, उसी प्रकार तद्देश में शब्द प्रतिभासित नहीं होता। शब्द श्रोता के कर्णप्रदेश में प्रतिभासित होता है । इस प्रकार वाच्य (पदार्थ) और वाचक (शब्द) का देश भिन्नभिन्न होता है । भिन्न देश में उपलब्ध शब्द को अर्थदेश में नहीं माना जा सकता, अन्यथा अतिप्रसंग नामक दोष आएगा। अत: अर्थ के अभिन्न देश में शब्द का प्रतिभास होना शब्दानुविद्धत्व नहीं है। (ख) शब्दानुविद्धत्व का अभिप्राय पदार्थ के साथ शब्द का तादात्म्य मानना ठीक नहीं है अर्थ और शब्द का तादात्म्य मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शब्द और अर्थ विभिन्न इन्द्रियों के द्वारा जाने जाते हैं, इसलिए उनमें तादात्म्य नहीं है।' अनुमान प्रमाण से भी शब्द और अर्थ में तादात्म्य सिद्ध नहीं होता है, यथा--- "जिनको विभिन्न इन्द्रियों के द्वारा जाना जाता है उनमें एकता नहीं रहती, जैसे-रूप चक्षुरिन्द्रिय से जाना जाता है और रस रसनेन्द्रिय से, इसलिए इनमें एकता नहीं है। इसी प्रकार शब्दाकाररहित नीलादिरूप और नीलादिरहित शब्द क्रमशः चक्षुरिन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय के विषय होने से उनमें एकता नहीं है । अत: अर्थ और शब्द में एकत्व न होने से उनके तादात्म्य को शब्दानुविद्धत्व नहीं माना जा सकता । अनुमान प्रमाण से इस बात का निराकरण हो जाता है कि शब्द और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध सम्भव नहीं है।' शब्दाद्वैतवादी कहते हैं कि 'यह रूप है' इस प्रकार के शब्द रूप विशेषण से ही रूपादि अर्थ की प्रतीति होती है। इसी कारण से शब्द और रूपयुक्त पदार्थ में एकत्व माना जाता है। इसके प्रत्युत्तर में प्रभाचन्द्र आचार्य कहते हैं कि शब्दाद्वैतवादी का यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि यहां प्रश्न हो सकता है कि "यह रूप है" इस प्रकार के ज्ञान से वापता को प्राप्त (तादात्म्ययुक्त) पदार्थ जाने जाते हैं अथवा यह ज्ञान भिन्न वापता विशेषण से युक्त पदार्थों को जानता है ?५ इनमें से किसी भी विकल्प को मानना निर्दोष नहीं है। यदि यह माना जाए कि जब नेत्रजन्यज्ञान रूप को जानता है, तो उसी समय बापता के पदार्थ जाने जाते हैं अर्थात् शब्दरूप पदार्थ है, ऐसा ज्ञान होता है-शब्दाद्वैतवादी का ऐसा मानना ठीक नहीं है। नेत्रजन्यज्ञान का विषय शब्द (वाग्रुपता) नहीं है। अतः उसमें उसकी प्रवृत्ति उसी प्रकार नहीं होती, जिस प्रकार अविषयी रस में चाक्षुष ज्ञान की प्रवृत्ति नहीं होती। यदि अपने विषय से भिन्न विषयों को चाक्षुषज्ञान जानने लगे, तो अन्य इन्द्रियों की कल्पना व्यर्थ हो जाएगी क्योंकि चक्षुरिन्द्रिय ही समस्त विषयों को जान लेगी। अब यदि माना जाय कि पदार्थ से भिन्न वाग्रूपता है और इस प्रकार के विशेषण से युक्त पदार्थ को चाक्षुषज्ञान जानता है, तो प्रभाचन्द्र कहते हैं कि उनका यह दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि शुद्ध अर्थात् केवल रूप को जानने वाला और शब्द को न जानने वाला चाक्षुषज्ञान यह नहीं जान सकता कि यह पदार्थ शब्द रूप विशेषण वाला (भिन्न वाग्रूपता विशेषणयुक्त विषय के) है। एक बात यह भी है कि जब तक विशेषण को न जाना जाय, तब तक विशेष्य को नहीं जाना जा सकता, जैसे—दण्ड को जाने बिना दण्डी को नहीं जाना जाता। इसी १. 'ननु किमिदं शब्दानु विद्धत्वं नाम-अर्थस्याभिन्नदेशे प्रतिभास: तादात्म्यं वा ?', प्रभाचन्द्र : प्र. क० मा०, १/३, पृ० ४० २. तत्राद्यविकल्पोऽसमीचीन:, तद्रहितस्यैवार्थस्याध्यक्षे प्रतिभासनात ।', वही ३. (क) प्रभाचन्द्र : प्र० क० मा०, १/३, पृ० ४० (ख) न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४४ (ग) वादिदेव सूरि : स्या० र०, १/७, पृ० ६५ ४. वही ५. ..."रूपमिदमिति ज्ञानेन हि वायुपता प्रतिपन्ना: पदार्थाः प्रतिपद्यन्ते भिन्नवाग्रूपता विशेषणविशिष्टा वा ?', प्र०क० मा०, १/३, पृ० ४० ६. प्र०क० मा०, १/३, पृ० ४० ७. "द्वितीयपक्षेऽपि अभिधाने प्रवर्तमानं शुद्धरूपमात्रविषयं लोचनविज्ञानं कथं तद्विशिष्टतया स्वविषयमुद्योतयेत् ?', वही १२८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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