Book Title: Shabdadwaitvad Jain Drushti
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ क्योंकि ऐसा मानने पर शब्दब्रह्म में अनादिनिधनत्व का विरोध प्राप्त होता है। अर्थात् शब्दब्रह्म में अनादिनिधनता नहीं रहेगी। प्रत्यक्ष में हम देखते हैं कि शब्दब्रह्म से उत्पन्न होने वाले घटादि कार्य उत्पाद और विनष्ट स्वभाव वाले हैं और शब्दब्रह्म उनसे अभिन्न है। अत: उत्पत्ति और विनाशशील पदार्थों के साथ शब्दब्रह्म की एकता होने के कारण शब्दब्रह्म का एकत्व नष्ट हो जायेगा। अतः घटादि कार्य शब्दब्रह्म से उत्पन्न होकर उससे अभिन्न रूप रहते हैं, ऐसा मानना तर्कहीन है। इस प्रकार विशद रूप से विवेचन करने पर यह सिद्ध हो जाता है कि सम्पूर्ण जगत् शब्दमय नहीं है । ज्ञान शब्दानुविद्ध नहीं है | शब्दावतवादियों का यह कथन तर्कहीन है कि शब्द के बिना ज्ञान नहीं होता। प्रभाचन्द्राचार्य 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' में उनसे प्रश्न करते हैं कि यदि ज्ञान में शब्दानुविद्वत्व का प्रतिभास होता है अर्थात् ज्ञान शब्दानुविद्ध है, तो इसकी प्रतीति किस को होती है और किस प्रमाण से यह जाना जाता है कि ज्ञान में शब्दानुविद्धता है, प्रत्यक्ष प्रमाण से या अनुमान प्रमाण से? 3 ज्ञान में शब्दानुविद्धता प्रत्यक्ष प्रमाण से प्रतीत नहीं होती---'ज्ञान शब्दानुविद्ध है' इसकी प्रतीति प्रत्यक्ष प्रमाण से मानने पर प्रश्न होता है कि ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व का प्रतिभास किस प्रत्यक्ष से होता है, इन्द्रिय प्रत्यक्ष से अथवा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से। ज्ञान इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं है- इन्द्रिय प्रत्यक्ष से ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व का प्रतिभास नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्रिय प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति रूपादि विषयों में होती है। ज्ञान उसका विषय नहीं है । ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय नहीं है-स्वसंवेदन से भी शब्दानुविद्धत्व का प्रतिभास नहीं होता है, क्योंकि स्वसंवेदन शब्द को विषय नहीं करता। अतः सिद्ध है कि प्रत्यक्ष प्रमाण से यह सिद्ध नहीं होता कि ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व है। अनुमान प्रमाण से भी ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व की प्रतीति नहीं होती-अब यदि माना जाय कि अनुमान प्रमाण से ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व की प्रतीति होती है, तो ऐसा कहना भी तर्कसंगत नहीं है। अविनाभावी लिंग के होने पर ही अनुमान अपने साध्य का साधक होता है । यहां पर कोई ऐसा लिंग नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो सके कि ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व है। यदि ऐसा कोई हेतु संभव भी हो, तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से पक्ष के बाधित हो जाने के कारण प्रयुक्त हेतु वास्तविक कालात्ययापदिष्ट नामक दोष से दूषित हेत्वाभास हो जाएगा। अतः ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व अनुमान प्रमाण से भी सिद्ध नहीं होता। जगत् शब्दमय नहीं है, अतः ज्ञान भी शब्दमय नहीं है-शब्दाद्वैतवादियों का यह कथन भी ठीक नहीं है कि जगत् के शब्दमय होने से उसके अन्तर्वर्ती ज्ञान भी शब्दस्वरूप हो जाएंगे और इस प्रकार ज्ञान में शब्दानुविद्धत्व सिद्ध हो जाएगा। इस कथन के ठीक न होने का कारण यह है कि जगत् में शब्दमयत्व प्रत्यक्षादि से बाधित है। सविकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा पद, वाक्यादि में अनुस्यूत शब्दाकार से भिन्न गिरि वृक्ष, लता आदि अर्थ स्पष्ट (विशद) रूप से प्रतीत होते हैं। अनुमान प्रमाण से भी यह सिद्ध हो जाता है कि पदार्थ शब्दरहित हैं, यथा— 'जो जिस आकार से पराङ्मुख (पृथक्) होते हैं, वे वास्तव में (परमार्थ से) भिन्न (अतन्मय) होते हैं, जैसे-जल के आकार से रहित (विकल) स्थास, कोश, कुशूलादि वास्तव में तन्मय नहीं हैं; पद, वाक्यादि से भिन्न गिरि, तरु, लतादि वास्तव में शब्दाकार से पराङ्मुख हैं।" इस अनुमान से सिद्ध है कि पदार्थ शब्दरहित है। शब्दाढतवादियों का यह कथन भी तर्कसंगत नहीं है कि जगत् शब्दमय है, इसलिए उसका अन्तर्वर्ती ज्ञान शब्दमय है । ज्ञान में शब्दानुविद्धता (ज्ञान शब्दमय है) प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण से सिद्ध नहीं होती, अतः शब्दाद्वैतवादियों की यह मान्यता खंडित हो जाती है कि ज्ञान शब्दमय है, इसी कारण से वह पदार्थों को प्रकाशित करता है। १.(क) स्या० र०, १/७, पृ० १०१ (ख) प्र० क० मा०, १/३, पृ० ४४ २. 'अनर्थान्तरभूतस्य तु कार्यग्रामस्योत्पत्ती शब्दब्रह्मणोऽनादिनिधनत्वविरोधः । तदुत्पत्तौ तस्याप्यनर्थान्तरभूतस्योत्पद्य मानत्वादुत्पन्नस्य चावश्यं विनाशित्वादिति ।' (क) स्या० र०, पृ०१०१ (ख) प्र० क० मा०, पृ० ४४ ३. 'तद्धि प्रत्यक्षेण प्रतीयते अन मानेन वा?', प्रभाचन्द्र : प्र०क० मा०, १/३, पृ० ३६ ४. 'प्रत्यक्षेण चेकिमन्द्रियेण स्वसंवेदनेन वा ?', वही, १/३, पृ० ३६-४० ५. अनुमानात्तेषां "मनोरथमात्रम् । तदविनाभाविलिंगाभावात ।', प्रभाचन्द्र : प्र० क० मा०, १/३, पृ०४३ ६. तदप्यनुपपन्नमेव ; तत्तन्मयत्वस्याध्यक्षादिबाधित्वात 1', वही, पृ० ४३ ७. वही, जैन दर्शन मीमांसा १२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17