Book Title: Shabda arth Sambandh Jain Darshaniko ki Drushti me Author(s): Hemlata Boliya Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 2
________________ e O -" ० १७६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड मतानुसार श्रोत्र के द्वारा ग्राह्यमान गुण शब्द है । यह मात्र आकाश में रहता है, अतः अनित्य है । अतः शब्द और अर्थ में जो सम्बन्ध है वह भी अनित्य है । अमुक शब्द अमुक अर्थ का वाचक है, यह संकेत निश्चित होने पर ही अर्थ का बोध होता है और यह संकेत पुरुषाधीन है । इससे भी शब्द अर्थ में अनित्य सम्बन्ध होना ही सिद्ध होता है । २ वैशेषिकों ने शब्द एवं अर्थ में सामायिक सम्बन्ध माना है जो नैयायिकों के अनित्य सम्बन्ध से भिन्न नहीं है । सांख्य दार्शनिकों ने इस सम्बन्ध में अपना कोई निश्चित मत व्यक्त नहीं किया। इनका तो इतना ही कहना है कि शब्द अनित्य है, अतः तदाश्रित अर्थ भी अनित्य है । शब्द से हमें जो अर्थ प्रतीति होती है वह उसके वाच्यवाचक भावसम्बन्ध के कारण ही होती है । शब्द ( वाच्य ) और अर्थ (वाचक) है। इसीलिए हम व्यवहार में कहते हैं कि अमुक शब्द अमुक अर्थ का वाचक है । * सांख्य दार्शनिकों के मत का भी सूक्ष्म पर्यालोचन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि शब्द एवं अर्थ में अनित्य सम्बन्ध है । वैसे भी दो अनित्य वस्तुओं का सम्बन्ध अनित्य ही होता है, यह लोकसिद्ध सत्य है । नित्य सम्बन्ध इसके विपरीत मीमांसक वेदान्ती एवं वैयाकारणों ने शब्द और अर्थ में नित्य सम्बन्ध माना है । अनित्य सम्बन्ध मानने वालों के मत का सयक्ति खण्डन करते हुए स्वमत का प्रतिपादन किया है। इनका कहना है कि यदि शब्द और अर्थ में अनित्य सम्बन्ध है तो शब्द में अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि न्यायादि मत में शब्द को अनित्य माना गया है । जब शब्द अनित्य है, तो संकेतित शब्द तो उच्चारणोपरान्त नष्ट हो जायेगा और नष्ट हुआ शब्द अर्थ का बोधक हो ही नहीं सकता। जबकि लोक में शब्द से अर्थ-प्रतीति देखी जा सकती है । अत: शब्द को अनित्य स्वीकार नहीं किया जा सकता है । इसीलिए शब्द और अर्थ में औत्पत्तिक (नित्य) सम्बन्ध है । इसके मतानुसार शब्द नित्य है और इसी अर्थ में वेद नित्य हैं । जिसे हम शब्द की उत्पत्ति समझते हैं, वह भी वस्तुतः शब्द की अभिव्यक्ति है । शब्द अर्थ का बोधक है और शब्द एवं अर्थ में संज्ञा-संज्ञी सम्बन्ध है । शब्द संज्ञा और अर्थ संजी है। संज्ञा-संज्ञी सम्बन्ध होने पर भी शब्द से अर्थ प्रतीति नहीं होती है, वहाँ ज्ञानाभाव को ही कारण मानना चाहिए। जैसे -- अन्धकार में रखी हुई वस्तु यदि ज्योतियुक्त नेत्रों से नहीं देखी जा सकती है तो इसका अर्थ वस्तु का अभाव नहीं हो सकता । उसी प्रकार शब्द सुनकर उसका अर्थ न जाना जाये, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध नहीं है, अपितु वहाँ सहायकों का अभाव जानना चाहिए। इस प्रकार लौकिक व्यवहार की दृष्टि से भी इनमें नित्य सम्बन्ध ही सिद्ध होता है, अनित्य नहीं । नित्य होने के कारण यह पुरुषकृत भी नहीं है, अपितु अपौरुषेय है। इनका वाच्य वाचकभाव सम्बन्ध भी नित्य है । जैसे पूर्व से ही स्थित १. योत्रग्राह्यो गुण शब्दः । आकाशमात्र वृत्तिः । २. जातिविशेषे चानियमात् । ३. सामायिक शब्दार्थप्रत्ययः । ४. वाच्यत्वाचकभावः सम्बन्धः शब्दार्थयोः । ५. ब्रह्मसूत्र, १३.८. २८ पर शंकर भाष्य । ६. नित्याः शब्दार्थासम्बन्धा स्तनाम्नातामहर्षिभिः । सूत्राणामनुतन्त्राणां भाष्याणां प्रणेतृभिः ॥ ७. औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धस्तत्र ज्ञाना..... ८. द्रष्टव्यबृहती, पृ० १३२ प्रकरणपंचिका, शास्त्रपरिच्छेद, पृ० २३३. Jain Education International - तर्कसंग्रह, पृ० ७८ प्रशस्तपादभाष्य, पृ० ६६६. न्याय दर्शन, २२५७. For Private & Personal Use Only - वैशेषिक सूत्र, ७ २२०. - - सांख्यसूत्र ( विद्योत्तमाभाष्य ), पृ० ५।३७. - वाक्यप्रदीप, ब्रह्मकाण्ड, २३. -मीमांसादर्शन (शावर) १.५ www.jainelibrary.org.Page Navigation
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